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|संग्रह=नियति,इतिहास और जरायु / श्रीनिवास श्रीकांत
}}
{{KKCatKavita}}<poem>मेहराब मेहराब दूरियाँआधी रात छतों पर भागते हैं लोगछतें छतें और छतेंमीलों तक फैली हुई जुड़वाँ
बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराबफफूँद लगे आसमानधूप में चौंकता है आदमीछिपकलियों सजे तोरणद्वारघूमता है आईनाएक दूसरे की ओर खुलते
जल है मछली कोनों में नुमायां कुण्डली मारेऔर मछली की आँखों में सूरज का डरदुबकी है हवा
बाल्कनी में नहीं कोई आहटनहीं रहता इनमेंखुली हैं खिड़कियाँइन्हें है सूरज से गुरेज़ खुले हैं दरवाज़ेधूप में असहनीय चिढ़
प्रतीक्षा हैआधी रात छतों परअनहोने इतिहास कीभागते हैं लोगउल्टे पाँवअधकटे चेहरे लिए
पर इतिहास नहीं गुज़रताएक वक्त था आक्षितिज फैली सपाट बाल्कनियों सेजब वे रहते थे घरों में ज़मींदोज़वह गुज़रता है भयानक पुलों और खूनी नदियों लेकिन अब घर के बीच डर सेरहते हैं बाहर
दूर तक फैली है रेत और रेत और रेतबढ़ गया बस्तियों से फासला समन्दर काडूबते सूरज और गुल होती रौशनी के साथबच्चे ढूँढते कमरे बने हैं माँओं की छातियाँमक़बरे,तलघर या सूखे जलाशय
कहाँ गया नीलघाटी का आबदार सम्मबोधनपैदा होते हैं बच्चे छतों परहिलते हुए पारे का सेन्दूर् का फैलाबपर्वत से अबकी बार नहीं उतरेंगे नबीन बरसेगा आसमानन भटकेंगी आँखे समन्दर पारयायावर पक्षियों की खोज में धूप नहीं रेंगेंगे बाल्कनियों बाल्कनियों रस्सियों पर झूलेंगे साँप दौड़ते-दौड़ते
ये कॉरीडोर,ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघरछतों के फर्श सब तिलस्मी हैंतिलस्मी क्या उन पर पूरा एक सन्नाटा शहर है सिलसिलेवारतेजहीन आँखों जगमगाता शहरदिन को सोता रात को जागता निशाचरधूप नहीं आती इन घरों मेंआती है तो मुर्दों की सदाएक सूराख है कहीं नींव के आस-पासछनती है जिसमें ज़हरीली रोशनी अपने लिये इन लोगों नेउगाना चाहा था कभीपेटियों में फ़सलेंउगते हैं अब जिनमें कंकरीट के बेजान फूल पड़ी हैं कीचन द्वारों पर टूटी हुई बोतलेंखिड़क़ी पर पिचकी थैलियांक़ाग़ज़ की कश्तियांखाने की मेज़ों पर पक्षियों की बीटसूखी हुई आँतेंआँखभुजाएँफर्श पर लौटते हुए टेढ़े पदचिन्हराख़ के ढेर पर बैठे फूस भरे जानवर नरक-सा लगता हैये पूरा मंज़रबदबूदार ठण्डापाग़ल ज़हन का ख़ालीपनजैसे बिखरा हुआ सिलसिलाअन्दर ही अन्दरलोप होते बोध के आकर्षण से जुड़ा
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