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"छतों पर भागते लोग / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर

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आधी रात छतों पर
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भागते हैं लोग
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छतें छतें और छतें
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मीलों तक फैली हुई जुड़वाँ
  
बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब
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फफूँद लगे आसमान
धूप में चौंकता है आदमी
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छिपकलियों सजे तोरणद्वार
घूमता है आईना
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एक दूसरे की ओर खुलते
  
जल है मछली में नुमायां
+
कोनों में कुण्डली मारे
और मछली की आँखों में सूरज का डर
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दुबकी है हवा
  
बाल्कनी में नहीं कोई आहट
+
कोई नहीं रहता इनमें
खुली हैं खिड़कियाँ
+
इन्हें है सूरज से गुरेज़
खुले हैं दरवाज़े
+
धूप में असहनीय चिढ़
  
प्रतीक्षा है
+
आधी रात छतों पर
अनहोने इतिहास की
+
भागते हैं लोग
 +
उल्टे पाँव
 +
अधकटे चेहरे लिए
  
पर इतिहास नहीं गुज़रता
+
एक वक्त था
आक्षितिज फैली सपाट बाल्कनियों से
+
जब वे रहते थे घरों में ज़मींदोज़
वह गुज़रता है भयानक पुलों
+
लेकिन अब घर के डर से
और खूनी नदियों के बीच से
+
रहते हैं बाहर
  
दूर तक फैली है रेत और रेत और रेत
+
कमरे बने हैं मक़बरे,तलघर या सूखे जलाशय
बढ़ गया बस्तियों से फासला समन्दर का
+
डूबते सूरज और गुल होती रौशनी के साथ
+
बच्चे ढूँढते हैं माँओं की छातियाँ
+
  
कहाँ गया नीलघाटी का आबदार सम्मबोधन
+
पैदा होते हैं बच्चे छतों पर
हिलते हुए पारे का सेन्दूर् का फैलाब
+
दौड़ते-दौड़ते
पर्वत से अबकी बार
+
नहीं उतरेंगे नबी
+
न बरसेगा आसमान
+
न भटकेंगी आँखे समन्दर पार
+
यायावर पक्षियों की खोज में
+
धूप नहीं रेंगेंगे बाल्कनियों बाल्कनियों
+
रस्सियों पर झूलेंगे साँप
+
  
ये कॉरीडोर,ये बॉल्कनियाँ, ये  आरामघर
+
छतों के फर्श सब तिलस्मी हैं
एक सन्नाटा है सिलसिलेवार
+
तिलस्मी क्या
तेजहीन आँखों का ख़ालीपन
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उन पर पूरा एक शहर है
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जगमगाता शहर
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दिन को सोता रात को जागता
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निशाचर
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धूप नहीं आती इन घरों में
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आती है तो मुर्दों की सदा
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एक सूराख है कहीं
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नींव के आस-पास
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छनती है जिसमें ज़हरीली रोशनी
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अपने लिये इन लोगों ने
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उगाना चाहा था कभी
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पेटियों में फ़सलें
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उगते हैं अब जिनमें
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कंकरीट के बेजान फूल
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पड़ी हैं कीचन द्वारों पर
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टूटी हुई बोतलें
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खिड़क़ी पर पिचकी थैलियां
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क़ाग़ज़ की कश्तियां
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खाने की मेज़ों पर
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पक्षियों की बीट
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सूखी हुई आँतें
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आँख
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भुजाएँ
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फर्श पर लौटते हुए टेढ़े पदचिन्ह
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राख़ के ढेर पर बैठे
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फूस भरे जानवर
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नरक-सा लगता है
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ये पूरा मंज़र
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बदबूदार ठण्डा
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पाग़ल ज़हन का जैसे
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बिखरा हुआ सिलसिला
 +
अन्दर ही अन्दर
 +
लोप होते बोध के आकर्षण से जुड़ा
 
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15:31, 27 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

आधी रात छतों पर
भागते हैं लोग
छतें छतें और छतें
मीलों तक फैली हुई जुड़वाँ

फफूँद लगे आसमान
छिपकलियों सजे तोरणद्वार
एक दूसरे की ओर खुलते

कोनों में कुण्डली मारे
दुबकी है हवा

कोई नहीं रहता इनमें
इन्हें है सूरज से गुरेज़
धूप में असहनीय चिढ़

आधी रात छतों पर
भागते हैं लोग
उल्टे पाँव
अधकटे चेहरे लिए

एक वक्त था
जब वे रहते थे घरों में ज़मींदोज़
लेकिन अब घर के डर से
रहते हैं बाहर

कमरे बने हैं मक़बरे,तलघर या सूखे जलाशय

पैदा होते हैं बच्चे छतों पर
दौड़ते-दौड़ते

छतों के फर्श सब तिलस्मी हैं
तिलस्मी क्या
उन पर पूरा एक शहर है
जगमगाता शहर
दिन को सोता रात को जागता
निशाचर
धूप नहीं आती इन घरों में
आती है तो मुर्दों की सदा
एक सूराख है कहीं
नींव के आस-पास
छनती है जिसमें ज़हरीली रोशनी

अपने लिये इन लोगों ने
उगाना चाहा था कभी
पेटियों में फ़सलें
उगते हैं अब जिनमें
कंकरीट के बेजान फूल

पड़ी हैं कीचन द्वारों पर
टूटी हुई बोतलें
खिड़क़ी पर पिचकी थैलियां
क़ाग़ज़ की कश्तियां
खाने की मेज़ों पर
पक्षियों की बीट
सूखी हुई आँतें
आँख
भुजाएँ
फर्श पर लौटते हुए टेढ़े पदचिन्ह
राख़ के ढेर पर बैठे
फूस भरे जानवर

नरक-सा लगता है
ये पूरा मंज़र
बदबूदार ठण्डा
पाग़ल ज़हन का जैसे
बिखरा हुआ सिलसिला
अन्दर ही अन्दर
लोप होते बोध के आकर्षण से जुड़ा