"मेहराब मेहराब दूरियाँ / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत |संग्रह=नियति,इतिहास और जरा...) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=नियति,इतिहास और जरायु / श्रीनिवास श्रीकांत | |संग्रह=नियति,इतिहास और जरायु / श्रीनिवास श्रीकांत | ||
}} | }} | ||
− | <poem>बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब | + | {{KKCatKavita}} |
+ | <poem> | ||
+ | बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब | ||
धूप में चौंकता है आदमी | धूप में चौंकता है आदमी | ||
घूमता है आईना | घूमता है आईना | ||
पंक्ति 41: | पंक्ति 43: | ||
एक सन्नाटा है सिलसिलेवार | एक सन्नाटा है सिलसिलेवार | ||
तेजहीन आँखों का ख़ालीपन | तेजहीन आँखों का ख़ालीपन | ||
− | |||
बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब | बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब | ||
धूप में चौंकता है आदमी | धूप में चौंकता है आदमी | ||
पंक्ति 76: | पंक्ति 77: | ||
रस्सियों पर झूलेंगे साँप | रस्सियों पर झूलेंगे साँप | ||
− | ये कॉरीडोर,ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघर | + | ये कॉरीडोर, ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघर |
एक सन्नाटा है सिलसिलेवार | एक सन्नाटा है सिलसिलेवार | ||
तेजहीन आँखों का ख़ालीपन | तेजहीन आँखों का ख़ालीपन | ||
− | + | </poem> |
15:33, 27 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब
धूप में चौंकता है आदमी
घूमता है आईना
जल है मछली में नुमायां
और मछली की आँखों में सूरज का डर
बाल्कनी में नहीं कोई आहट
खुली हैं खिड़कियाँ
खुले हैं दरवाज़े
प्रतीक्षा है
अनहोने इतिहास की
पर इतिहास नहीं गुज़रता
आक्षितिज फैली सपाट बाल्कनियों से
वह गुज़रता है भयानक पुलों
और खूनी नदियों के बीच से
दूर तक फैली है रेत और रेत और रेत
बढ़ गया बस्तियों से फासला समन्दर का
डूबते सूरज और गुल होती रौशनी के साथ
बच्चे ढूँढते हैं माँओं की छातियाँ
कहाँ गया नीलघाटी का आबदार सम्मबोधन
हिलते हुए पारे का सेन्दूर् का फैलाब
पर्वत से अबकी बार
नहीं उतरेंगे नबी
न बरसेगा आसमान
न भटकेंगी आँखे समन्दर पार
यायावर पक्षियों की खोज में
धूप नहीं रेंगेंगे बाल्कनियों बाल्कनियों
रस्सियों पर झूलेंगे साँप
ये कॉरीडोर,ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघर
एक सन्नाटा है सिलसिलेवार
तेजहीन आँखों का ख़ालीपन
बढती हैं दूरियाँ मेहराब मेहराब
धूप में चौंकता है आदमी
घूमता है आईना
जल है मछली में नुमायां
और मछली की आँखों में सूरज का डर
बाल्कनी में नहीं कोई आहट
खुली हैं खिड़कियाँ
खुले हैं दरवाज़े
प्रतीक्षा है
अनहोने इतिहास की
पर इतिहास नहीं गुज़रता
आक्षितिज फैली सपाट बाल्कनियों से
वह गुज़रता है भयानक पुलों
और खूनी नदियों के बीच से
दूर तक फैली है रेत और रेत और रेत
बढ़ गया बस्तियों से फासला समन्दर का
डूबते सूरज और गुल होती रौशनी के साथ
बच्चे ढूँढते हैं माँओं की छातियाँ
कहाँ गया नीलघाटी का आबदार सम्मबोधन
हिलते हुए पारे का सेन्दूर् का फैलाब
पर्वत से अबकी बार
नहीं उतरेंगे नबी
न बरसेगा आसमान
न भटकेंगी आँखे समन्दर पार
यायावर पक्षियों की खोज में
धूप नहीं रेंगेंगे बाल्कनियों बाल्कनियों
रस्सियों पर झूलेंगे साँप
ये कॉरीडोर, ये बॉल्कनियाँ, ये आरामघर
एक सन्नाटा है सिलसिलेवार
तेजहीन आँखों का ख़ालीपन