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"शब्द / भविष्य के नाम पर / केशव" के अवतरणों में अंतर

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11:52, 29 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

लिखकर भी
पूरा नहीं उतरता
भीतर का सच

रंग
जम जाते हैं
चित्र की हथेलियों पर

बार-बार होती है दस्तक
भीतर
गुहा द्वार पर

पर
पुतलियों में जम जाती है
एक झील

शब्द
कर लेते हैं आत्महत्या
खिड़कियों से कूद
गुहा द्वार खुलने से पहले

कथावाचक
जिन आख्यानों के सहारे
प्रस्तुत करते हैं समाधान
वह प्रभु
जन्मता तो है
पर मुर्दा

कि नपुंसक हैं ये शब्द
जो नहीं लाँघते
लक्ष्मण-रेखाएँ
खोलते नहीं घाव
और अनुभव
हमेशा छूट जाता है
अपने सँस्करण छाप।