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|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
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<poem>
मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा ।
मैं फिर जनम लूंगा<br>इस समूह में फिर मैं<br>इसी जगह आउंगा<br>उचटती निगाहों की भीड़ इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में <br>अभावों के बीच<br>कैसा दर्द है लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा<br>कोई नहीं सुनता ! लँगड़ाकर चलते हुए पावों पर इन आवाजों को<br> कंधा दूँगा<br>गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता और इन कराहों को<br>बाँहों में उठाऊँगा दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।<br>
मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।
इस समूह में<br>इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में<br>कैसा दर्द है<br>कोई नहीं सुनता !<br>पर इन आवाजों को <br>और इन कराहों को<br>दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।<br> मेरी तो आदत है<br>रोशनी जहाँ भी हो<br>उसे खोज लाऊँगा <br>कातरता, चु्पपी या चीखें,<br>या हारे हुओं की खीज<br>जहाँ भी मिलेगी<br>उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।<br> जीवन ने कई बार उकसाकर<br>मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है<br>अगन-भट्ठियों में झोंका है,<br>मैने वहाँ भी<br>ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये<br>बचने के नहीं,<br>तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?<br>तुम मुझकों दोषी ठहराओ<br>मैने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है<br>पर मैं गाऊँगा<br>चाहे इस प्रार्थना सभा में<br>तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ<br>मैं मर जाऊँगा<br>लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा<br>कल फिर आऊँगा ।<br/poem>