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|संग्रह= जिजीविषा / महेन्द्र भटनागर
}}
{{KKCatKavita}}<poem>अब और न चलने पाएगी परदापोशी,<br>भंग हुई है गत युग की जड़ता बेहोशी !<br><br>
सावधान हो जाओ, ओ! जन-पथ के द्रोही,<br>युग है दलितों का जिसकी बाट सदा जोही !<br><br>
ललकार रहा है नित धरता मज़बूत क़दम<br>इंसान नया, नव राह बना, कर दूर वहम !<br><br>
कंधों पर आज किये नव-रचना भार वहन,<br>टकरा कर मर्दित दग्ध-विषैला-क्रूर दमन !<br><br>
निष्फल अभियान विपक्षी व्यूह हुए लुंठित,<br>कल की आँधी देख रही प्रतिहत राह थकित !<br><br>
नव-लाली ले उगता लो जनता का सूरज,<br>‘नया सबेरा’ आज दमामा कहता बज-बज !<br><br>
मानव के हाथों में सुदृढ़ हथौड़े का बल,<br>पर्वत की छाती पर चलता जनता का हल !<br><br>
हरियाली लाएगा, समता विश्वास अमर,<br>फूटेंगे अंकुर पथरीली बंजर भू पर !<br><br>
रस का सागर लहराएगा जन-जन के हित,<br>बरसेगा जीवन कण-कण पर मुक्त असीमित !<br/poem>
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