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"नींद आती ही नहीं...(हज़ल) /भारतेंदु हरिश्वंद्र" के अवतरणों में अंतर

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'''हज़ल (हास्य ग़ज़ल)
 
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नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से
 
नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से
 
 
तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज़ दिल के साज से
 
तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज़ दिल के साज से
 
  
 
दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अन्दाज़ से
 
दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अन्दाज़ से
 
 
हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से
 
हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से
 
  
 
सैकड़ों मुरदे जिलाए ओ मसीहा नाज़ से
 
सैकड़ों मुरदे जिलाए ओ मसीहा नाज़ से
 
 
मौत शरमिन्दा हुई क्या क्या तेरे ऐजाज़ से
 
मौत शरमिन्दा हुई क्या क्या तेरे ऐजाज़ से
 
  
 
बाग़वां कुंजे कफ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
 
बाग़वां कुंजे कफ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
 
 
अब खुलें पर भी तो मैं वाक़िफ नहीं परवाज़ से
 
अब खुलें पर भी तो मैं वाक़िफ नहीं परवाज़ से
 
  
 
कब्र में राहत से सोए थे न था महशर का खौफ़
 
कब्र में राहत से सोए थे न था महशर का खौफ़
 
 
वाज़ आए ए मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से
 
वाज़ आए ए मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से
 
  
 
बाए गफ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो
 
बाए गफ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो
 
 
चौंक पड़ता हूँ शिकस्तः होश की आवाज़ से
 
चौंक पड़ता हूँ शिकस्तः होश की आवाज़ से
 
  
 
नाज़े माशूकाना से खाली नहीं है कोई बात
 
नाज़े माशूकाना से खाली नहीं है कोई बात
 
 
मेरे लाश को उठाए हैं वे किस अन्दाज़ से
 
मेरे लाश को उठाए हैं वे किस अन्दाज़ से
 
  
 
कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका ‘रसा’
 
कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका ‘रसा’
 
 
चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से
 
चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से
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17:44, 1 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

हज़ल (हास्य ग़ज़ल)

नींद आती ही नहीं धड़के की बस आवाज़ से
तंग आया हूँ मैं इस पुरसोज़ दिल के साज से

दिल पिसा जाता है उनकी चाल के अन्दाज़ से
हाथ में दामन लिए आते हैं वह किस नाज़ से

सैकड़ों मुरदे जिलाए ओ मसीहा नाज़ से
मौत शरमिन्दा हुई क्या क्या तेरे ऐजाज़ से

बाग़वां कुंजे कफ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
अब खुलें पर भी तो मैं वाक़िफ नहीं परवाज़ से

कब्र में राहत से सोए थे न था महशर का खौफ़
वाज़ आए ए मसीहा हम तेरे ऐजाज़ से

बाए गफ़लत भी नहीं होती कि दम भर चैन हो
चौंक पड़ता हूँ शिकस्तः होश की आवाज़ से

नाज़े माशूकाना से खाली नहीं है कोई बात
मेरे लाश को उठाए हैं वे किस अन्दाज़ से

कब्र में सोए हैं महशर का नहीं खटका ‘रसा’
चौंकने वाले हैं कब हम सूर की आवाज़ से