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भेड़िया | भेड़िया |
23:04, 1 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
भेड़िया
(ये कविता जार्ज बुश को राजघांट पर देख कर उपजी है)
सुजलाम, सुफलाम और शायद मलयज शीतलाम भी .....
भेड़िया खड़ा था वहां,
भेड़िया.......
दांतों में उलझी हुईं थीं
अंतड़ियां अभी तक
और लोथड़े भी,
आंखों में लाल हिंस्र चमक,
अंदर आते समय
टपक रहा था
गर्म खून भी
दांतों से...
न जाने किसके इशारे पर
जिसे
पोंछ लिये था उसने
तीन रंगों वाली पेपर नेपकिन से ।
उतरा था जब
तब
सने हुए थे पैर भी
लाल कीचड़ में,
गहरे लाल रंग की
और
गंधाती हुई कीचड़ में ।
उतरने के बाद
पोंछते हुए आया था पैर
यहां तक ।
सब कुछ तो बिछा था
लाल कालीन की तरह
लाल कालीन...
जिनका उपयोग
किया जाता है अंक्सर
पैर पोंछने के लिये ही,
लाल रंग से सने पैरों
को पोंछने के लिये
और अंक्सर सारे बड़े पैर
सने होते हैं
लाल रंग में
गहरे कत्थई रंग की झांई वाले
लाल रंग में
इसीलिये उनके नीचे
बिछा दिये जाते हैं
कालीन लाल।
चारों तरंफ जो कुछ भी था
तीन रंग का
वो सब कुछ बिछा दिया गया था
लाल कालीन बनाकर,
और उसी पर चलता हुआ आया था
यहां तक
भेड़िया,
चलता हुआ.....?
या शायद
रौंदता हुआ,
गर्व से रौंदता हुआ,
सो रही थी अहिंसा
मौन, नि:शब्द,
एक मुट्ठी फूल उछाल कर
कहा उसने
'सोए रहो चुपचाप,
यहीं इसी प्रकार
सोए रहो चुपचाप।'
कुछ देर रुक कर
लौट गया था भेड़िया,
ज्यादा देर तक रुक भी नहीं सकता था,
बहुत जल्दी जल्दी लगा करती है
आदमखोर भेड़ियों को
खून की प्यास,
लौट गया था जल्दी ही
इसीलिये।
उसी दिन से
गंध मेहसूस की जाती है
बारूद की
राजघांट की हवाओं में,
आपने मेहसूस की क्या.......?