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"आदमी - 1 / पंकज सुबीर" के अवतरणों में अंतर

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और कर देता हैं शामिल भीड़ में, फलानों की ।
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अपनी सारी पहचान को खोकर  
 
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ताकि जब तुम मरो , तो हम कह सकें
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कि वो गंजा गंजा सा फलाना  आदमी,
 
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जो अब तक खुद को जिंदा समझता था
 
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गंजा गंजा सा फलाना आदमी ।
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गंजा गंजा सा फलाना आदमी।
 
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23:27, 1 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

बहुत से नाम हैं उनके
फलाने, ढिकाने, अमके, ढिमके,
सचमुच बहुत नाम हैं उनके,
एक फलाने का उद्बोधन
धो डालता है सारी पहचान को,
व्यक्तिगत पहचान को,
और कर देता हैं शामिल भीड़ में, फलानों की।
बहुत पीड़ादायी होता है
अपनी सारी पहचान को खोकर
फलाना आदमी हो जाना।
यँ ही नहीं कह देते हम किसी को,
फलाना आदमी,
वास्तव में वो एक साज़िश होती है हमारी,
किसी अच्छे खासे जीवन को
सिरे से ख़ारिज कर देने की,
यह जतलाने की,
कि आख़िरकार हो क्या तुम ...?
कुछ भी तो नहीं हो ...।
न तो तुम महात्मा गांधी हो
और न वीरप्पन,
फिर क्यों उठाई जाए जहमत...?
तुम्हारा नाम याद रखने की,
जबकी भरी पड़ी है ये दुनिया,
रामलाल, श्याम लाल और गिरधारी लालों से,
लेकिन दुर्भाग्य या दुर्योग से
चूंकि तुम भी एक आदमी हो,
इसलिए अब तुम फलाने हो
एक भीड़, जिस का नाम फलाना है
जो कुछ भी नहीं है,
न गांधी है न वीरप्पन,
और ये फलानापन भी तुम्हारा नहीं है
यह तो हमारी सुविधा के लिए है,
ताकि जब तुम मरो, तो हम कह सकें
कि वो गंजा गंजा सा फलाना आदमी,
जो अब तक खुद को जिंदा समझता था
कल रात सचमुच में मर गया
वही लिजलिजा, सड़ांध मारता,
घिसट घिसट कर चलता,
लार, आंसू और पीब से बना
गंजा गंजा सा फलाना आदमी।