भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यह वक़्त / समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो (यह वक़्त. / सुधीर सक्सेना का नाम बदलकर यह वक़्त / समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना कर दिया गया है) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना | |संग्रह=समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
+ | <poem> | ||
कुछ भी | कुछ भी | ||
− | |||
ऎतबार के काबिल नहीं रहा | ऎतबार के काबिल नहीं रहा | ||
− | |||
न कहा गया, | न कहा गया, | ||
− | |||
न सुना गया, | न सुना गया, | ||
− | |||
और न लिखा गया | और न लिखा गया | ||
− | |||
कुछ भी नहीं | कुछ भी नहीं | ||
− | |||
जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके, | जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके, | ||
− | |||
कोई कोना नहीं, | कोई कोना नहीं, | ||
− | |||
जहाँ यकीन बैठ सके, | जहाँ यकीन बैठ सके, | ||
− | |||
आलथी-पालथी मारकर | आलथी-पालथी मारकर | ||
− | |||
आसेतु हिमाचल | आसेतु हिमाचल | ||
− | |||
गड्ड्मड्ड हैं आँसू, क्रोध और हताशा | गड्ड्मड्ड हैं आँसू, क्रोध और हताशा | ||
− | |||
सब कुछ डूबा जा रहा है इस दुर्निवार समय में | सब कुछ डूबा जा रहा है इस दुर्निवार समय में | ||
− | |||
एक तिनके की तलाश में | एक तिनके की तलाश में | ||
− | |||
लगातार हिचकोले खा रहे हैं | लगातार हिचकोले खा रहे हैं | ||
− | |||
पचासी करोड़ लोग। | पचासी करोड़ लोग। | ||
+ | </poem> |
13:12, 2 जनवरी 2010 का अवतरण
कुछ भी
ऎतबार के काबिल नहीं रहा
न कहा गया,
न सुना गया,
और न लिखा गया
कुछ भी नहीं
जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके,
कोई कोना नहीं,
जहाँ यकीन बैठ सके,
आलथी-पालथी मारकर
आसेतु हिमाचल
गड्ड्मड्ड हैं आँसू, क्रोध और हताशा
सब कुछ डूबा जा रहा है इस दुर्निवार समय में
एक तिनके की तलाश में
लगातार हिचकोले खा रहे हैं
पचासी करोड़ लोग।