भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यह वक़्त / समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<poem> | <poem> | ||
कुछ भी | कुछ भी | ||
− | + | ऐतबार के काबिल नहीं रहा | |
न कहा गया, | न कहा गया, | ||
न सुना गया, | न सुना गया, |
13:28, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
कुछ भी
ऐतबार के काबिल नहीं रहा
न कहा गया,
न सुना गया,
और न लिखा गया
कुछ भी नहीं
जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके,
कोई कोना नहीं,
जहाँ यकीन बैठ सके,
आलथी-पालथी मारकर
आसेतु हिमाचल
गड्ड्मड्ड हैं आँसू, क्रोध और हताशा
सब कुछ डूबा जा रहा है इस दुर्निवार समय में
एक तिनके की तलाश में
लगातार हिचकोले खा रहे हैं
पचासी करोड़ लोग।