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"संवाद के सिलसिले में (कविता) / राजा खुगशाल" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=संवाद के सिलसिले में / राजा खुगशाल
 
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पत्ते ऊंघ रहे हैं
 
पत्ते ऊंघ रहे हैं
 
 
और समय खेत की मेंढ़ पर
 
और समय खेत की मेंढ़ पर
 
 
पेड़ के पास चुपचाप खड़ा है
 
पेड़ के पास चुपचाप खड़ा है
 
 
जब कि उसकी चेतना पर
 
जब कि उसकी चेतना पर
 
 
बया के संख्यातीत
 
बया के संख्यातीत
 
 
घोंसले झूल रहे हैं
 
घोंसले झूल रहे हैं
 
 
फिर भी
 
फिर भी
 
 
'पटवार घर' तक आए
 
'पटवार घर' तक आए
 
 
वसन्त को 'राम-राम'
 
वसन्त को 'राम-राम'
 
  
 
मिट्ठन, गूगन, रामदिया
 
मिट्ठन, गूगन, रामदिया
 
 
दुलीचंद, झीमर और पल्टू मियाँ
 
दुलीचंद, झीमर और पल्टू मियाँ
 
 
एक की दिशा में
 
एक की दिशा में
 
 
करोड़ों नाम हैं
 
करोड़ों नाम हैं
 
 
जहाँ आज भी नहीं घूमती पृथ्वी
 
जहाँ आज भी नहीं घूमती पृथ्वी
 
 
चाक पर मिट्टी और
 
चाक पर मिट्टी और
 
 
मेहनत के हाथ घूमते हैं
 
मेहनत के हाथ घूमते हैं
 
  
 
गोबर की गंध में  
 
गोबर की गंध में  
 
 
दूर-दूर तक
 
दूर-दूर तक
 
 
न दस्तख़्त हैं न दिनांक
 
न दस्तख़्त हैं न दिनांक
 
 
आकाश के नीले रंग पर मन
 
आकाश के नीले रंग पर मन
 
 
उपले की तरह पथा हुआ है
 
उपले की तरह पथा हुआ है
 
 
लेकिन ठण्डी कश-म-कश है
 
लेकिन ठण्डी कश-म-कश है
 
 
जिसमें लोग
 
जिसमें लोग
 
 
गाँव सभा के साथ
 
गाँव सभा के साथ
 
 
कचहरी में लड़ रहे हैं
 
कचहरी में लड़ रहे हैं
 
  
 
बादल नहीं बरसते जहाँ
 
बादल नहीं बरसते जहाँ
 
 
'राम जी मूतते हैं'
 
'राम जी मूतते हैं'
 
 
किन्तु आजकल ओले पड़ रहे हैं
 
किन्तु आजकल ओले पड़ रहे हैं
 
 
सपनों में अधिकतर
 
सपनों में अधिकतर
 
 
रोटियाँ आ रही हैं
 
रोटियाँ आ रही हैं
 
 
नींद और ज़मीन के बीच
 
नींद और ज़मीन के बीच
 
 
बिस्तर जैसा
 
बिस्तर जैसा
 
 
कोई विषय नहीं है
 
कोई विषय नहीं है
 
 
बच्चे पढ़ रहे हैं
 
बच्चे पढ़ रहे हैं
 
 
लिखत-पढ़त में बार-बार
 
लिखत-पढ़त में बार-बार
 
 
अंगूठे के नीचे आते हैं--साहित्य
 
अंगूठे के नीचे आते हैं--साहित्य
 
 
समाज और सरकार
 
समाज और सरकार
 
 
जहाँ शहर के प्राण पीछे छूट जाते हैं
 
जहाँ शहर के प्राण पीछे छूट जाते हैं
 
 
वहाँ यह भाषा नहीं
 
वहाँ यह भाषा नहीं
 
 
तेज़ छटपटाहट है
 
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संवाद के सिलसिले में ।
 
संवाद के सिलसिले में ।
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14:44, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

पत्ते ऊंघ रहे हैं
और समय खेत की मेंढ़ पर
पेड़ के पास चुपचाप खड़ा है
जब कि उसकी चेतना पर
बया के संख्यातीत
घोंसले झूल रहे हैं
फिर भी
'पटवार घर' तक आए
वसन्त को 'राम-राम'

मिट्ठन, गूगन, रामदिया
दुलीचंद, झीमर और पल्टू मियाँ
एक की दिशा में
करोड़ों नाम हैं
जहाँ आज भी नहीं घूमती पृथ्वी
चाक पर मिट्टी और
मेहनत के हाथ घूमते हैं

गोबर की गंध में
दूर-दूर तक
न दस्तख़्त हैं न दिनांक
आकाश के नीले रंग पर मन
उपले की तरह पथा हुआ है
लेकिन ठण्डी कश-म-कश है
जिसमें लोग
गाँव सभा के साथ
कचहरी में लड़ रहे हैं

बादल नहीं बरसते जहाँ
'राम जी मूतते हैं'
किन्तु आजकल ओले पड़ रहे हैं
सपनों में अधिकतर
रोटियाँ आ रही हैं
नींद और ज़मीन के बीच
बिस्तर जैसा
कोई विषय नहीं है
बच्चे पढ़ रहे हैं
लिखत-पढ़त में बार-बार
अंगूठे के नीचे आते हैं--साहित्य
समाज और सरकार
जहाँ शहर के प्राण पीछे छूट जाते हैं
वहाँ यह भाषा नहीं
तेज़ छटपटाहट है
संवाद के सिलसिले में ।