भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सांझ (कविता) / जगदीश गुप्त" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> जिस दिन से संज्ञा आई छा ...)
 
छो (सांझ(कविता) / जगदीश गुप्त का नाम बदलकर सांझ (कविता) / जगदीश गुप्त कर दिया गया है)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:17, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

जिस दिन से संज्ञा आई
छा गई उदासी मन में,
ऊषा के दृग खुलते ही
हो गई सांझ जीवन में।

मुँह उतर गया है दिन का
तरुओं में बेहोशी है,
चाहे जितना रंग लाए
फिर भी प्रदोष दोषी है।

रवि के श्रीहीन दृगों में
जब लगी उदासी घिरने,
संध्या ने तम केशों में
गूंथी चुन कर कुछ किरनें।

जलदों के जल से मिल कर
फिर फैल गए रंग सारे,
व्याकुल है प्रकृति चितेरी
पट कितनी बार सँवारे।

किरनों के डोरे टूटे
तम में समीर भटका है,
जाने कैसे अंबर में
यह जलद पटल अटका है।

रश्मियाँ जलद से उलझीं
तिमिराभ हुई अरुणाई,
पावस की साँझ रंगीली
गीली-गीली अलसाई।