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"है ज़िंदगी में मौत का सामाँ तेरे बग़ैर / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी" के अवतरणों में अंतर
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बनने लगी है इक शबे-ज़िन्दाँ तेरे बग़ैर | बनने लगी है इक शबे-ज़िन्दाँ तेरे बग़ैर | ||
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11:40, 4 जनवरी 2010 का अवतरण
है ज़िंदगी में मौत का सामाँ तेरे बग़ैर
काँटों पे लोटती है मेरी जाँ तेरे बग़ैर
तू पास हो तो नूर में ढलती है ज़िंदगी
होता नहीं नसीब दरख़्शाँ तेरे बग़ैर
क़िस्मत की तरह बादे-सबा भी उदास है
सामाने-रंगे-बू है परीशाँ तेरे बग़ैर
मेरी शऊर मेरी हक़ीक़त मेरा वजूद
कुछ भी महीं है शान के शायाँ तेरे बग़ैर
दौरे-ख़िज़ाँ है नाम तेरी ही जुदाई का
खिलता नहीं है रंगे-बहाराँ तेरे बग़ैर
तोड़ेगा कौन तल्ख़ी-ए-हयात की ये ज़िद
रोकेगा कौन गर्दिशे-दौराँ तेरे बग़ैर
मेरा रफ़ीक<ref>मित्र</ref> मेरा मुक़द्दर<ref>भाग्य</ref> मेरा हबीब<ref>मित्र</ref>
मुद्दत से है यही ग़मे-दौराँ तेरे बग़ैर
ऐ ‘चाँद’ आ भी जा कि मेरी ज़िंदगी की रात
बनने लगी है इक शबे-ज़िन्दाँ तेरे बग़ैर
शब्दार्थ
<references/>