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सब कुछ मिला-जुलाकर लेकिन,
:हम थे सदा मनुज ही।
 
हत्या भी की और दूसरों
:के हित स्वयं मरे भी,
सच है, किया पाप, लेकिन,
:प्रभु से हम सदा डरे भी।
 
तब भी स्वर्ग कहा करता था
:"धरती बड़ी मलिन है,
मर्त्य लोक वासी मनुजों की
:जाति बड़ी निर्घिन है।"
 
निर्घिन थे हम क्योंकि राग से
:था संघर्ष हमारा,
पलता था पंचाग्नि-बीच
:व्याकुल आदर्श हमारा।
 
हाय, घ्राण ही नहीं, तुझे यदि
:होता मांस-लहू भी,
ओ स्वर्वासी अमर! मनुज-सा
:निर्घिन होता तू भी,
 
काश, जानता तू कितना
:धमनी का लहू गरम है,
चर्म-तृषा दुर्जेय, स्पर्श-सुख
:कितना मधुर नरम है।
</poem>
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