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चर्म-तृषा दुर्जेय, स्पर्श-सुख
:कितना मधुर नरम है।
 
ज्वलित पिण्ड को हृदय समझकर
:ताप सदा सहते थे,
पिघली हुई आग थी नस में,
:हम लोहू कहते थे।
 
मिट्टी नहीं, आग का पुतला,
:मानव कहाँ मलिन था?
ज्वाला से लड़नेवाला यह
:वीर कहाँ निर्घिन था?
 
हम में बसी आग यह छिपती
:फिरती थी नस-नस में,
वशीभूत थी कभी, कभी
:हम ही थे उसके बस में।
 
वह संगिनी शिखा भी होगी
:मुझ से आज किनारा,
नाचेगी फिर नहीं लहू में
:गलित अग्नि की धारा।
 
अन्धकार के महागर्त्त में
:सब कुछ सो जायेगा,
सदियों का इतिवृत्त अभी
:क्षण भर में खो जायेगा।
 
लोभ, क्रोध, प्रतिशोध, कलह की
:लज्जा-भरी कहानी,
पाप-पंक धोने वाला
:आँखों का खारा पानी,
 
अगणित आविष्कार प्रकृति के
:रूप जीतने वाले,
समरों की असंख्य गाथाएँ,
:नर के शौर्य निराले,
 
संयम, नियति, विरति मानव की,
:तप की ऊर्ध्व शिखाएँ,
उन्नति और विकास, विजय की
:क्रमिक स्पष्ट रेखाएँ,
 
होंगे सभी विलीन तिमिर में, हाय
:अभी दो पल में,
दुनिया की आखिरी रात
:छा जायेगी भूतल में।
 
डूब गया लो सूर्य; गई मुँद
:केवल--आँख भुवन की;
किरण साथ ही चली गई
:अन्तिम आशा जीवन की।
 
 
 
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