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22:35, 4 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
आतंक का ऐसा घेरा
और यह घना अन्धकार
इससे पहले तो कभी नहीं था
ऐसा विकट सन्नाटा
एकता भी कहाँ बचा पायी उन्हें
एका करके चिल्लाए
तो आ गये धमाके की चपेट में
विरोध करने से हुआ कहाँ विरोध
जिन्होंने बचाव में उठाये हथियार
वे हर हाल में मारे गये
जिन्होंने नहीं उठाये हथियार
वे आ गये निर्दोष मृतकों की सूची में
जो हथियार भर बोले
धर लिये गये हथियार कहने के जुर्म में
जो डरते थे हिंसक आँखों से
बाँधे हुए थे मुँह पर मुसीका
पर भाँप न सके हवा का रुख
और अपने ही कपड़ों की सरसराहट से
आ गये उनके अचूक निशाने पर
कराहें, चीखें और किलकारियाँ
दब गयीं भारी बूटों तले
वे कदमताल करते हुए आये
और मारते हुए गुजर गये।