"कलिंग-विजय / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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:डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य्य! | :डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य्य! | ||
+ | छा गया तम, आ गये तारे तिमिर को चीर, | ||
+ | आ गया विधु; किन्तु, क्यों आकृति किये गम्भीर? | ||
+ | और उस घन-खण्ड ने विधु को लिया क्यों ढाँक? | ||
+ | फिर गया शशि क्या लजाकर पाप नर के झाँक? | ||
+ | चाँदनी घन में मिली है छा रही सब ओर, | ||
+ | साँझ को ही दीखता ज्यों हो गया हो भोर। | ||
+ | ::मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश, | ||
+ | ::श्रव्य जो भी शब्द वे उठते मरण के पास। | ||
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13:24, 6 जनवरी 2010 का अवतरण
युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित, सुनसान;
गिरिशिखर पर थम गया है डूबता दिनमान--
देखते यम का भयावह कृत्य,
अन्ध मानव की नियति का नृत्य;
सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम?
विश्व को क्या दे गया इतना बड़ा संग्राम?
युद्ध का परिणाम?
युद्ध का परिणाम ह्रासत्रास!
युद्ध का परिणाम सत्यानाश!
रुण्ड-मुण्ड-लुंठन, निहिंसन, मीच!
युद्ध का परिणाम लोहित कीच!
हो चुका जो कुछ रहा भवितव्य,
यह नहीं नर के लिये कुछ नव्य;
भूमि का प्राचीन यह अभिशाप,
तू गगनचारी न कर सन्ताप।
मौन कब के हो चुके रण-तूर्य्य,
डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य्य!
छा गया तम, आ गये तारे तिमिर को चीर,
आ गया विधु; किन्तु, क्यों आकृति किये गम्भीर?
और उस घन-खण्ड ने विधु को लिया क्यों ढाँक?
फिर गया शशि क्या लजाकर पाप नर के झाँक?
चाँदनी घन में मिली है छा रही सब ओर,
साँझ को ही दीखता ज्यों हो गया हो भोर।
मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश,
श्रव्य जो भी शब्द वे उठते मरण के पास।