"कलिंग-विजय / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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दे रहा है सत्य का संवाद, | दे रहा है सत्य का संवाद, | ||
सुन रहे सम्राट कोई नाद। | सुन रहे सम्राट कोई नाद। | ||
+ | :"मन्द मानव! वासना के भृत्य! | ||
+ | :देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य। | ||
+ | :यह धरा तेरी न थी उपनीत, | ||
+ | :शत्रु की त्यों ही नहीं थी क्रीत। | ||
+ | सृष्टि सारी एक प्रभु का राज, | ||
+ | स्वत्व है सबका प्रजा के व्याज। | ||
+ | मानकर प्रति जीव का अधिकार, | ||
+ | ढो रही धरणी सभी का भार। | ||
+ | :एक ही स्तन का पयस कर पान, | ||
+ | :जी रहे बलहीन औ बलवान। | ||
+ | :देखने को बिम्ब - रूप अनेक, | ||
+ | :किन्तु, दृश्याधार दर्पण एक | ||
+ | मृत्ति तो बिकती यहाँ बेदाम, | ||
+ | साँस से चलता मनुज का काम। | ||
+ | मृत्तिका हो याकि दीपित स्वर्ण, | ||
+ | साँस पाकर मूर्ति होती पूर्ण। | ||
+ | :राज या बल पा अमित अनमोल, | ||
+ | :साँस का बढ़ता न किंचित मोल। | ||
+ | :दीनता, दौर्बल्य का अपमान, | ||
+ | :त्यों घटा सकते न इसका मान। | ||
+ | :तू हुआ सब कुछ, मनुज लेकिन, रहा अब क्या न? | ||
+ | :जो नहीं कुछ बन सका, वह भी मनुज है, मान। | ||
+ | हाय रे धनलुब्ध जीव कठोर! | ||
+ | हाय रे दारुण! मुकुटधर भूप लोलुप, चोर। | ||
+ | साज कर इतना बड़ा सामान, | ||
+ | स्वत्व निज सर्वत्र अपना मान। | ||
+ | खड्ग - बल का ले मृषा आधार, | ||
+ | छीनता फिरता मनुज के प्राकृतिक अधिकार। | ||
+ | :चरण से प्रभु के नियम को चाप, | ||
+ | :तू बना है चाहता भगवान अपना आप। | ||
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14:02, 6 जनवरी 2010 का अवतरण
युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित, सुनसान;
गिरिशिखर पर थम गया है डूबता दिनमान--
देखते यम का भयावह कृत्य,
अन्ध मानव की नियति का नृत्य;
सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम?
विश्व को क्या दे गया इतना बड़ा संग्राम?
युद्ध का परिणाम?
युद्ध का परिणाम ह्रासत्रास!
युद्ध का परिणाम सत्यानाश!
रुण्ड-मुण्ड-लुंठन, निहिंसन, मीच!
युद्ध का परिणाम लोहित कीच!
हो चुका जो कुछ रहा भवितव्य,
यह नहीं नर के लिये कुछ नव्य;
भूमि का प्राचीन यह अभिशाप,
तू गगनचारी न कर सन्ताप।
मौन कब के हो चुके रण-तूर्य्य,
डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य्य!
छा गया तम, आ गये तारे तिमिर को चीर,
आ गया विधु; किन्तु, क्यों आकृति किये गम्भीर?
और उस घन-खण्ड ने विधु को लिया क्यों ढाँक?
फिर गया शशि क्या लजाकर पाप नर के झाँक?
चाँदनी घन में मिली है छा रही सब ओर,
साँझ को ही दीखता ज्यों हो गया हो भोर।
मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश,
श्रव्य जो भी शब्द वे उठते मरण के पास।
शब्द? यानी घायलों की आह,
घाव के मारे हुओं की क्षीण, करुण कराह,
बह रहा जिसका लहू उसकी करुण चीत्कार,
श्वान जिसको नोचते उसकी अधीर पुकार।
"घूँट भर पानी, जरा पानी" रटन, फिर मौन;
घूँट भर पानी अमृत है, आज देगा कौन?
बोलते यम के सहोदर श्वान,
बोलते जम्बुक कृतान्त - समान।
मृत्यु गढ़ पर है खड़ा जयकेतु रेखाकार,
हो गई हो शान्ति मरघट की यथा साकार।
चल रहा ध्वज के हृदय में द्वन्द्व,
वैजयन्ती है झुकी निस्पन्द।
जा चुके सब लोग फिर आवास,
हतमना कुछ और कुछ सोल्लास।
अंक में घायल, मृतक, निश्वेत,
शूर-वीरों को लिटाये रह गया रण-खेत।
और इस सुनसान में निःसंग,
खोजते सच्छान्ति का परिष्वंग,
मूर्तिमय परिताप-से विभ्राट,
हैं खड़े केवल मगध-सम्राट।
टेक सिर ध्वज का लिये अवलम्ब,
आँख से झर - झर बहाते अम्बु।
भूलकर का भूपाल का अहमित्व,
शीश पर वध का लिये दायित्व।
जा चुकी है दृष्टि जग के पार,
आ रहा सम्मुख नया संसार।
चीर वक्षोदेश भीतर पैठ,
देवता कोई हॄदय में बैठ,
दे रहा है सत्य का संवाद,
सुन रहे सम्राट कोई नाद।
"मन्द मानव! वासना के भृत्य!
देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य।
यह धरा तेरी न थी उपनीत,
शत्रु की त्यों ही नहीं थी क्रीत।
सृष्टि सारी एक प्रभु का राज,
स्वत्व है सबका प्रजा के व्याज।
मानकर प्रति जीव का अधिकार,
ढो रही धरणी सभी का भार।
एक ही स्तन का पयस कर पान,
जी रहे बलहीन औ बलवान।
देखने को बिम्ब - रूप अनेक,
किन्तु, दृश्याधार दर्पण एक
मृत्ति तो बिकती यहाँ बेदाम,
साँस से चलता मनुज का काम।
मृत्तिका हो याकि दीपित स्वर्ण,
साँस पाकर मूर्ति होती पूर्ण।
राज या बल पा अमित अनमोल,
साँस का बढ़ता न किंचित मोल।
दीनता, दौर्बल्य का अपमान,
त्यों घटा सकते न इसका मान।
तू हुआ सब कुछ, मनुज लेकिन, रहा अब क्या न?
जो नहीं कुछ बन सका, वह भी मनुज है, मान।
हाय रे धनलुब्ध जीव कठोर!
हाय रे दारुण! मुकुटधर भूप लोलुप, चोर।
साज कर इतना बड़ा सामान,
स्वत्व निज सर्वत्र अपना मान।
खड्ग - बल का ले मृषा आधार,
छीनता फिरता मनुज के प्राकृतिक अधिकार।
चरण से प्रभु के नियम को चाप,
तू बना है चाहता भगवान अपना आप।