"दिल्ली और मास्को / रामधारी सिंह "दिनकर"" के अवतरणों में अंतर
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दिल्ली राजपुरी भारत की, भारत का अपमान। | दिल्ली राजपुरी भारत की, भारत का अपमान। | ||
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+ | :मानवता कहता तू जिसको | ||
+ | :उसे चबाकर जीनेवाली। | ||
+ | :यह पहाड़ के नीचे पिसता | ||
+ | :हुआ मनुज क्या प्रेय नहीं है? | ||
+ | :इसका मुक्ति-प्रयास स्वयं ही | ||
+ | :क्या उज्ज्वलतम श्रेय नहीं है? | ||
+ | :यह जो कटे वीर-सुत माँ के | ||
+ | :यह जो बही रुधिर की धारा, | ||
+ | :यह जो डोली भूमि देश की, | ||
+ | :यह जो काँप गया नभ सारा; | ||
+ | यह जो उठी शौर्य की ज्वाला, यह जो खिला प्रकाश; | ||
+ | यह जो खड़ी हुई मानवता रचने को इतिहास; | ||
+ | कोटि-कोटि सिंहों की यह जो उट्ठी मिलित, दहाड़; | ||
+ | यह जो छिपे सूर्य-शशि, यह जो हिलने लगे पहाड़। | ||
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21:48, 7 जनवरी 2010 का अवतरण
जय विधायिके अमर क्रान्ति की! अरुण देश की रानी!
रक्त-कुसुम-धारिणि! जगतारिणि! जय नव शिवे! भवानी!
अरुण विश्व की काली, जय हो,
लाल सितारोंवाली, जय हो,
दलित, बुझुक्ष्, विषण्ण मनुज की,
शिखा रुद्र मतवाली, जय हो।
जगज्ज्योति, जय - जय, भविष्य की राह दिखानेवाली,
जय समत्व की शिखा, मनुज की प्रथम विजय की लाली।
भरे प्राण में आग, भयानक विप्लव का मद ढाले,
देश-देश में घूम रहे तेरे सैनिक मतवाले।
नगर-नगर जल रहीं भट्ठियाँ,
घर-घर सुलग रही चिनगारी;
यह आयोजन जगद्दहन का,
यह जल उठने की तैयारी;
देश देश में शिखा क्षोभ की
उमड़-घुमड़ कर बोल रही है;
लरज रहीं चोटियाँ शैल की,
धरती क्षण-क्षण डोल रही है।
ये फूटे अंगार, कढ़े अंबर में लाल सितारे,
फटी भूमि, वे बढ़े ज्योति के लाल-लाल फव्वारे।
बंध, विषमता के विरुद्ध सारा संसार उठा है।
अपना बल पहचान, लहर कर पारावार उठा है।
छिन्न-भिन्न हो रहीं मनुजता के बन्धन की कड़ियाँ,
देश-देश में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियाँ।
एक देश है जहाँ विषमता
से अच्छी हो रही गुलामी,
जहाँ मनुज पहले स्वतंत्रता
से हो रहा साम्य का कामी।
भ्रमित ज्ञान से जहाँ जाँच हो
रही दीप्त स्वातंत्र्य-समर की,
जहाँ मनुज है पूज रहा जग को,
बिसार सुधि अपने घर की।
जहाँ मृषा संबंध विश्व-मानवता
से नर जोड़ रहा है,
जन्मभूमि का भाग्य जगत की
नीति-शिला पर फोड़ रहा है।
चिल्लाते हैं "विश्व, विश्व" कह जहाँ चतुर नर ज्ञानी,
बुद्धि-भीरु सकते न डाल जलते स्वदेश पर पानी।
जहाँ मासको के रणधीरों के गुण गाये जाते,
दिल्ली के रुधिराक्त वीर को देख लोग सकुचाते।
दिल्ली, आह, कलंक देश की,
दिल्ली, आह, ग्लानि की भाषा,
दिल्ली, आह, मरण पौरुष का,
दिल्ली, छिन्न-भिन्न अभिलाषा।
विवश देश की छाती पर ठोकर की एक निशानी,
दिल्ली, पराधीन भारत की जलती हुई कहानी।
मरे हुओं की ग्लानि, जीवितों को रण की ललकार,
दिल्ली, वीरविहीन देश की गिरी हुई तलवार।
बरबस लगी देश के होठों
से यह भरी जहर की प्याली,
यह नागिनी स्वदेश-हृदय पर
गरल उँड़ेल लोटनेवाली।
प्रश्नचिह्न भारत का, भारत के बल की पहचान,
दिल्ली राजपुरी भारत की, भारत का अपमान।
ओ समता के वीर सिपाही,
कहो, सामने कौन अड़ी है?
बल से दिए पहाड़ देश की
छाती पर यह कौन पड़ी है?
यह है परतंत्रता देश की,
रुधिर देश का पीनेवाली;
मानवता कहता तू जिसको
उसे चबाकर जीनेवाली।
यह पहाड़ के नीचे पिसता
हुआ मनुज क्या प्रेय नहीं है?
इसका मुक्ति-प्रयास स्वयं ही
क्या उज्ज्वलतम श्रेय नहीं है?
यह जो कटे वीर-सुत माँ के
यह जो बही रुधिर की धारा,
यह जो डोली भूमि देश की,
यह जो काँप गया नभ सारा;
यह जो उठी शौर्य की ज्वाला, यह जो खिला प्रकाश;
यह जो खड़ी हुई मानवता रचने को इतिहास;
कोटि-कोटि सिंहों की यह जो उट्ठी मिलित, दहाड़;
यह जो छिपे सूर्य-शशि, यह जो हिलने लगे पहाड़।