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<poem>
:'''(1.)'''
आकाशगंगा संग
अन्तरिक्ष में
ब्रह्मा को बाँयी ओर खिसका
खुद स्रष्टा होती है स्त्री
:'''(2.)'''
देह के नीले धब्बांे धब्बों से
चुनती है
सूखी लकड़ियाँ
सींझती है कविता
आँखे खोलती,
गेहूँ के दानों में
स्वप्न सलोने नहीं
तब वह लेखनी उठाती है
बाहर के दुर्दान्त
परोस
मीठी नींद सुलाती है
नींद मंे में होता है भेड़िया
तो नेलकटर उठाती है
किन्तु गद्देदार पंजो से,
गायब हो जाते हैं नाखून
झबरीले ललाट के ठीक पीछे
रेडियम की तरह दमकतेे दमकते
क्रोमोजोम्स में धुल रहे थे नाखून