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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 5

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&#39;&#39;शरासन तान, बस अवसर यही है ,<br>
घडी घड़ी फ़िर और मिलने की नहीं है .<br>
विशिख कोई गले के पार कर दे ,<br>
अभी ही शत्रु का संहार कर दे .&#39;&#39;<br>
&#39;&#39;कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह .<br>
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह .<br>
क्रिया को छोड छोड़ चिन्तन में फंसेगा ,<br>
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा .&#39;&#39;<br>
<br>
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विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था ,<br>
खडा खड़ा राधेय नि:सम्बल, विरथ था ,<br>खडे खड़े निर्वाक सब जन देखते थे ,<br>
अनोखे धर्म का रण देखते थे .<br>
<br>
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&#39;&#39;प्रलापी ! ओ उजागर धर्म वाले !<br>
बडी बड़ी निष्ठा, बडे बड़े सत्कर्म वाले !<br>
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन ,<br>
कहां पर सो रहा था धर्म उस दिन ?&#39;&#39;<br>
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&#39;&#39;हलाहल भीम को जिस दिन पडा पड़ा था ,<br>
कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?<br>
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,<br>
उजागर, शीलभूषित धर्म ही था .<br>
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन ,<br>
हुए पाणडव पाण्डव यती निष्काम जिस दिन ,&#39;&#39;<br>
<br>
&#39;&#39;चले वनवास को तब धर्म था वह ,<br>