भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा मिले / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …)
 
(कोई अंतर नहीं)

19:38, 21 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

उसी तरह से हर इक ज़ख्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा भरा देखे

गुज़र गए हैं बहुत दिन रफ़ाक़त-ए-शब<ref>रात्रि का साहचर्य</ref> में
इक उम्र हो गई चेहरा वो चाँद सा देखे

मिरे सुकूत<ref>मौन</ref> से जिसको गिले रहे क्या क्या
बिछड़ते वक़्त उन आँखों का बोलना देखे

तिरे सिवा भी कई रंग खुश नज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे

बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आँखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे

उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाक़त<ref>मैत्री</ref> जो
जब आँखें खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे

तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मिरी तरफ भी तो इक पल तिरा खुदा देखे

शब्दार्थ
<references/>