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"मुझे दुनिया का फलसफ़ा मालूम नहीं है / मुकेश जैन" के अवतरणों में अंतर

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'''रचनाकाल''': 20/जनवरी/1996

17:51, 30 जनवरी 2010 का अवतरण

मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है

मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है.

बच्चा खुद को नंगा देखकर खुश होता है.

न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग
रोज़ मरते हैं. लोगों की आँखों में झाँको
तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की
मांनिंद भीतर उतर जाता है. जहाँ बच्चों
की आँखों की नग्नता अँकुराती है.

अखबार पढ़ते हुए अचानक कविता
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है.
यहीं से दुनियाँ के फलसफ़े का सिरा
शुरु होता है.

कविता प्रिया की तरह नहीं आती है.
तग़ादा करने आये बनिया की तरह
एहसास कराती है.

रचनाकाल: 20/जनवरी/1996