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"स्वदेश-विज्ञान / श्रीधर पाठक" के अवतरणों में अंतर

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जब तक तुम प्रत्येक व्यक्ति निज सत्त्व-तत्त्व नहिं जानोगे
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त्यों नहिं अति पावन स्वदेश-रति का महत्त्व पहचानोगे
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जब तक इस प्यारे स्वदेश को अपना निज नहिं मानोगे
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त्यों अपना निज जान सतत-शुश्रूषा-व्रत नहिं ठानोगे
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प्रेम-सहित प्रत्येक वस्तु को जब तक नहिं अपनाओगे
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समता-युत सर्वत्र देश में ममता-मति न जगाओगे
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जब तक प्रिय स्वदेश को अपना इष्ट-देव न बनाओगे
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उसके धूलि-कणों में आत्मा को समूल न मिलाओगे
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पूत पवन जल भूमि व्योम पर प्रेम-दृष्टि नहिं डालोगे
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हो अनन्य-मन प्रेम-प्रतिज्ञा-पालन-व्रत नहिं पालोगे
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तन मन धन जन प्रान देश-जीवन के साथ न सानोगे
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स्वोपयुक्त विज्ञान ज्ञान का सुखद वितान न तानोगे
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तब तक क्योंकर देश तुम्हारा निज स्वदेश हो सकता है
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स्वत्व उसी का रह सकता है रख उसको जो सकता है
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12:34, 31 जनवरी 2010 का अवतरण

जब तक तुम प्रत्येक व्यक्ति निज सत्त्व-तत्त्व नहिं जानोगे
त्यों नहिं अति पावन स्वदेश-रति का महत्त्व पहचानोगे
जब तक इस प्यारे स्वदेश को अपना निज नहिं मानोगे
त्यों अपना निज जान सतत-शुश्रूषा-व्रत नहिं ठानोगे
प्रेम-सहित प्रत्येक वस्तु को जब तक नहिं अपनाओगे
समता-युत सर्वत्र देश में ममता-मति न जगाओगे
जब तक प्रिय स्वदेश को अपना इष्ट-देव न बनाओगे
उसके धूलि-कणों में आत्मा को समूल न मिलाओगे
पूत पवन जल भूमि व्योम पर प्रेम-दृष्टि नहिं डालोगे
हो अनन्य-मन प्रेम-प्रतिज्ञा-पालन-व्रत नहिं पालोगे
तन मन धन जन प्रान देश-जीवन के साथ न सानोगे
स्वोपयुक्त विज्ञान ज्ञान का सुखद वितान न तानोगे
तब तक क्योंकर देश तुम्हारा निज स्वदेश हो सकता है
स्वत्व उसी का रह सकता है रख उसको जो सकता है