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"सिर्फ़ काग़ज़ पर नहीं / रंजना जायसवाल" के अवतरणों में अंतर

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22:38, 1 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

सिर्फ़ कागज़ पर
नहीं लिखी जाती है कविता

किसान लिखता है
ज़मीन पर...
शिल्पकार
पत्थर... मिट्टी...
बढ़ई
लकडी़ पर...

स्त्री घर के कोने - कोने में
रचती है कविता...

माँ की हर लोरी
बच्चे की किलकारी
तुतली बतकही
घरनी की चुपकही
प्रेमियों की कही-अनकही में
होती है कविता...

पौधे के पत्ते-पत्ते
फूल की हर पंखुरी
तितली के रंगीन परों पर
इठलाती है कविता...

गौर से सुनो तो,
कोयल की कूक
पपीहे की हूक
पक्षी की चहचहाहट
घास की सुगबुगाहट
भौरों की गुनगुनाहट में भी
लजाती... मुस्कुराती
खिलखिलाती है कविता

सिर्फ़ कागज़ पर
नहीं लिखी जाती है कविता...।