"बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग ४" के अवतरणों में अंतर
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− | + | उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से, | |
− | उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से, | + | घर से क्रीड़ारत बालक-से, |
− | घर से क्रीड़ारत बालक-से, | + | ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार! |
− | ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार ! | + | स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार! |
− | स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार | + | अन्धकार-- घन अन्धकार ही |
− | अन्धकार-- घन अन्धकार ही | + | क्रीड़ा का आगार। |
− | क्रीड़ा का आगार। | + | चौंक चमक छिप जाती विद्युत |
− | चौंक चमक छिप जाती विद्युत | + | तडिद्दाम अभिराम, |
− | तडिद्दाम अभिराम, | + | तुम्हारे कुंचित केशों में |
− | तुम्हारे कुंचित केशों में | + | अधीर विक्षुब्ध ताल पर |
− | अधीर विक्षुब्ध ताल पर | + | एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम। |
− | एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम। | + | वर्ण रश्मियों-से कितने ही |
− | वर्ण रश्मियों-से कितने ही | + | छा जाते हैं मुख पर-- |
− | छा जाते हैं मुख पर-- | + | जग के अंतस्थल से उमड़ |
− | जग के अंतस्थल से उमड़ | + | नयन पलकों पर छाये सुख पर; |
− | नयन पलकों पर छाये सुख पर; | + | रंग अपार |
− | रंग अपार | + | किरण तूलिकाओं से अंकित |
− | किरण तूलिकाओं से अंकित | + | इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; -- |
− | इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; -- | + | व्योम और जगती के राग उदार |
− | व्योम और जगती के राग उदार | + | मध्यदेश में, गुडाकेश! |
− | मध्यदेश में, गुडाकेश ! | + | गाते हो वारम्वार। |
− | गाते हो वारम्वार। | + | मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में |
− | मुक्त ! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में | + | स्वरारोह, अवरोह, विघात, |
− | स्वरारोह, अवरोह, विघात, | + | मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि |
− | मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि | + | छा लेती है गगन, श्याम कानन, |
− | छा लेती है गगन, श्याम कानन, | + | सुरभित उद्यान, |
− | सुरभित उद्यान, | + | झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात। |
− | झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात। | + | वधिर विश्व के कानों में |
− | वधिर विश्व के कानों में | + | भरते हो अपना राग, |
− | भरते हो अपना राग, | + | मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग। |
− | मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।< | + | </poem> |
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00:08, 4 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
<< पिछला भागउमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से,
घर से क्रीड़ारत बालक-से,
ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार!
स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार!
अन्धकार-- घन अन्धकार ही
क्रीड़ा का आगार।
चौंक चमक छिप जाती विद्युत
तडिद्दाम अभिराम,
तुम्हारे कुंचित केशों में
अधीर विक्षुब्ध ताल पर
एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।
वर्ण रश्मियों-से कितने ही
छा जाते हैं मुख पर--
जग के अंतस्थल से उमड़
नयन पलकों पर छाये सुख पर;
रंग अपार
किरण तूलिकाओं से अंकित
इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; --
व्योम और जगती के राग उदार
मध्यदेश में, गुडाकेश!
गाते हो वारम्वार।
मुक्त! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में
स्वरारोह, अवरोह, विघात,
मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि
छा लेती है गगन, श्याम कानन,
सुरभित उद्यान,
झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।
वधिर विश्व के कानों में
भरते हो अपना राग,
मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।