भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"यहाँ से भी चलें / ओम प्रभाकर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम प्रभाकर |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> चलें, अब तो यहाँ से…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("यहाँ से भी चलें / ओम प्रभाकर" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
:उठ गए | :उठ गए | ||
:हिलते हुए रंगीन कपड़े | :हिलते हुए रंगीन कपड़े | ||
− | :::सूखते। | + | ::::सूखते। |
:(अपाहिज हैं छत-मुँडेरे) | :(अपाहिज हैं छत-मुँडेरे) | ||
− | ::एक स्लेटी सशंकित आवाज़ | + | :::एक स्लेटी सशंकित आवाज़ |
− | :::आने लगी सहसा | + | :::::आने लगी सहसा |
− | ::::दूर से। | + | :::::::दूर से। |
चलें, अब तो पहाड़ी उस पार | चलें, अब तो पहाड़ी उस पार |
01:51, 4 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
चलें, अब तो यहाँ से भी चलें।
उठ गए
हिलते हुए रंगीन कपड़े
सूखते।
(अपाहिज हैं छत-मुँडेरे)
एक स्लेटी सशंकित आवाज़
आने लगी सहसा
दूर से।
चलें, अब तो पहाड़ी उस पार
बूढ़े सूर्य बनकर ढलें।
पेड़, मंदिर, पंछियों के रूप।
कौन जाने
कहाँ रखकर जा छिपी
वह सोनियातन
करामाती धूप।
चलें, अब तो बन्द कमरों में
सुलगती लकड़ियों-से जलें।