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+ | <poem> | ||
+ | वेदने, तू भी भली बनी। | ||
+ | पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी। | ||
+ | नई किरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी, | ||
+ | सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय विशिख-अनी। | ||
+ | ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु सनी, | ||
+ | तू ही उष्ण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी। | ||
+ | आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्ट-जनी। | ||
+ | तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी। | ||
+ | अरी वियोग समाधि, अनोखी, तू क्या ठीक ठनी, | ||
+ | अपने को प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी। | ||
+ | मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी, | ||
+ | तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राणधनी ॥१॥ | ||
− | + | कहती मैं चातकि, फिर बोल। | |
− | + | ये खारी आँसू की बूँदे दे सकती यदि मोल। | |
− | + | कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलो की तोल? | |
− | + | फिर भी, फिर भी, इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल। | |
− | + | श्रुति-पुट लेकर पूर्व स्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल। | |
− | + | देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल। | |
− | + | जाग उठे हैं मेरे सौ-सौ स्वप्न स्वंय हिल-डोल, | |
− | + | और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल। | |
− | + | न कर वेदना-सुख से वंचित बढा हृदय-हिंदोल, | |
− | + | जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल ॥२॥ | |
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− | कहती मैं चातकि, फिर बोल। | + | |
− | ये खारी आँसू की बूँदे दे सकती यदि मोल। | + | |
− | कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलो की तोल? | + | |
− | फिर भी, फिर भी, इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल। | + | |
− | श्रुति-पुट लेकर पूर्व स्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल। | + | |
− | देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल। | + | |
− | जाग उठे हैं मेरे सौ-सौ स्वप्न स्वंय हिल-डोल, | + | |
− | और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल। | + | |
− | न कर वेदना-सुख से वंचित बढा हृदय-हिंदोल, | + | |
− | जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल ॥२॥ | + | |
− | निरख सखी ये खंजन आये। | + | निरख सखी ये खंजन आये। |
− | फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये। | + | फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये। |
− | फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये, | + | फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये, |
− | घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये। | + | घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये। |
− | कर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काये, | + | कर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काये, |
− | फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये। | + | फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये। |
− | स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये, | + | स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये, |
− | नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये ॥३॥ | + | नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये ॥३॥ |
− | शिशिर, न फिर गिरि वन में। | + | शिशिर, न फिर गिरि वन में। |
− | जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में। | + | जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में। |
− | कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में, | + | कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में, |
− | सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में। | + | सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में। |
− | वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में, | + | वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में, |
− | तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में। | + | तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में। |
− | हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में, | + | हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में, |
− | तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में ॥४॥ | + | तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में ॥४॥ |
− | यही आता है इस मन में। | + | यही आता है इस मन में। |
− | छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में। | + | छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में। |
− | प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर, | + | प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर, |
− | व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर। | + | व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर। |
− | हर्ष डूबा हो रोदन में, | + | हर्ष डूबा हो रोदन में, |
− | यही आता है इस मन में, | + | यही आता है इस मन में, |
− | बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट, | + | बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट, |
− | जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट। | + | जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट। |
− | रहें रत वे निज साधन में, | + | रहें रत वे निज साधन में, |
− | यही आता है इस मन में। | + | यही आता है इस मन में। |
− | जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात, | + | जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात, |
− | धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात। | + | धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात। |
− | प्रेम की ही जय जीवन में, | + | प्रेम की ही जय जीवन में, |
− | यही आता है इस मन में ॥५॥< | + | यही आता है इस मन में ॥५॥ |
+ | </poem> |
20:55, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय विशिख-अनी।
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु सनी,
तू ही उष्ण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी।
आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्ट-जनी।
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी।
अरी वियोग समाधि, अनोखी, तू क्या ठीक ठनी,
अपने को प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राणधनी ॥१॥
कहती मैं चातकि, फिर बोल।
ये खारी आँसू की बूँदे दे सकती यदि मोल।
कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलो की तोल?
फिर भी, फिर भी, इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल।
श्रुति-पुट लेकर पूर्व स्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल।
देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल।
जाग उठे हैं मेरे सौ-सौ स्वप्न स्वंय हिल-डोल,
और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल।
न कर वेदना-सुख से वंचित बढा हृदय-हिंदोल,
जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल ॥२॥
निरख सखी ये खंजन आये।
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये।
फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये,
घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये।
कर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काये,
फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये।
स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये,
नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये ॥३॥
शिशिर, न फिर गिरि वन में।
जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में।
कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में,
सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में।
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में,
तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में।
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में,
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में ॥४॥
यही आता है इस मन में।
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।
हर्ष डूबा हो रोदन में,
यही आता है इस मन में,
बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट।
रहें रत वे निज साधन में,
यही आता है इस मन में।
जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात।
प्रेम की ही जय जीवन में,
यही आता है इस मन में ॥५॥