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"दोनों ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त | |रचनाकार=मैथिलीशरण गुप्त | ||
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− | दोनों ओर प्रेम पलता | + | ::दोनों ओर प्रेम पलता है। |
− | सखि पतंग भी जलता है हा | + | सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है! |
− | सीस हिलाकर दीपक कहता | + | सीस हिलाकर दीपक कहता-- |
− | + | ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’ | |
− | पर पतंग | + | पर पतंग पड़ कर ही रहता |
− | दोनों ओर प्रेम पलता | + | ::कितनी विह्वलता है! |
− | + | ::दोनों ओर प्रेम पलता है। | |
− | बचकर हाय पतंग मरे क्या | + | बचकर हाय! पतंग मरे क्या? |
− | प्रणय | + | प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या? |
− | जले नही तो मरा | + | जले नही तो मरा करे क्या? |
− | दोनों ओर प्रेम पलता | + | ::क्या यह असफलता है! |
− | + | ::दोनों ओर प्रेम पलता है। | |
− | कहता है पतंग मन मारे | + | कहता है पतंग मन मारे-- |
− | + | ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे, | |
− | क्या न मरण भी हाथ हमारे शरण किसे छलता है | + | क्या न मरण भी हाथ हमारे? |
− | दोनों ओर प्रेम पलता | + | ::शरण किसे छलता है?’ |
− | + | ::दोनों ओर प्रेम पलता है। | |
− | दीपक के जलनें में आली | + | दीपक के जलनें में आली, |
− | फिर भी है जीवन की | + | फिर भी है जीवन की लाली। |
− | किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली किसका वश चलता है | + | किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली, |
− | दोनों ओर प्रेम पलता | + | ::किसका वश चलता है? |
− | + | ::दोनों ओर प्रेम पलता है। | |
− | जगती वणिग्वृत्ति है रखती | + | जगती वणिग्वृत्ति है रखती, |
− | उसे चाहती जिससे चखती | + | उसे चाहती जिससे चखती; |
− | काम | + | काम नहीं, परिणाम निरखती। |
− | दोनों ओर प्रेम पलता | + | ::मुझको ही खलता है। |
+ | ::दोनों ओर प्रेम पलता है। | ||
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23:08, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण
दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता--
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।