भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आज अपने आप में क्या हो गया है आदमी / रवीन्द्र प्रभात" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्र प्रभात }} {{KKCatGhazal}} <poem> आज अपने आप में क्य…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:10, 5 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
आज अपने आप में क्या हो गया है आदमी ,
जागने का वक़्त है तो सो गया है आदमी ।
भूख की दहलीज़ पर जगता रहा जो रात- दिन ,
चंद रोटी खोजने में खो गया है आदमी ।
यह हमारा मुल्क है या स्वार्थ का बाज़ार है ,
सेठियों के हाथ गिरवी हो गया है आदमी ।
पेट की थी आग या कि बोझ बस्तों का उसे ,
छोड़ करके पाठशाला जो गया है आदमी ।
कुर्सियों की होड़ में बस दौड़ने के बास्ते ,
नफ़रतों का बीज आकर बो गया है आदमी ।