"दार्जिलिंग,1991 / राजेन्द्र भंडारी" के अवतरणों में अंतर
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12:43, 9 फ़रवरी 2010 का अवतरण
रोते-रोते थक रात के तीसरे पहर क्षण भर को सो जाती है पर्वतों की रानी! जगते ही साश्चर्य छटपटाती है कहाँ गया मेरे गले का हार? नथ मेरी कहाँ खो गयी ? कहाँ गए मेरे राजकुमार ? हटाकर घनी काली ओढ़नी खाकी, सूर्य दीखता है पहाड़ियों के पार !
मौन बैठे हैं हवा से अठखेलियाँ करने धुपी के पेंड फिर रंगीत का पीला जल घबडाकर नीचे की ओर बहता है ! नव -दंपत्ति के लिए रंगीन उपहार एक मीठा आह्लाद पर्यटक के लिए और ड्राईवर भैया के लिए बेटी की कॉलेज फीस तथा बेटे के लिए दवा-खर्च बनी खडी है स्वागत में 'टाईगर हिल' !
स्वागत में खडी है 'टाईगर हिल' लिए हाथ में लाल कलश, लजाते प्रकाश से काना-फूसी करने लगते हैं आपस में जले घर और टूटे पुल, बैसाखी ले चलाती एक लंगडी शान्ति विश्राम करती है पहुँच कर चौरस्ते !
नीचे चाय-बगान से आते हैं पराजित कुहासों के लम्हे गगन को फिर सुनाने लगते हैं मिट्टी की खबर !
अटक जाता है अट्टालिकाओं की छत में आकर एक विवश मौन गर्म और सर्द फांके अटकी गले में एक त्रासदी अपने-आप बंद हो जाती है ! एक विशाल कोरस क्रमश: चुप हो जाता है - जब यह बोलने लगता है एक दार्जिलिंग , चुप रह जाता है दूसरा दार्जिलिंग ! एक ही विस्तारे में सोये एक भाई से पूछता है दूसरा : बाज़ार में : 'आप कौन हैं ?' ऊपर सुपर मार्केट, चौक बाज़ार, महाकाल , कहीं से भी फिसलकर गिर जाने का भय छाया रहता है ! बाज़ार घूमते, घर लौटते, जहां-तहां जब-तब विदीर्ण मन में उठाता धुंआ चुभने लगता है दिन-दिन भर आँखों में !
अपना चेहरा बाज़ार के बड़े से आईने में और भी कुरूप लगता है ! आदमियों से भेंट होना वीराने देश में पहुँचना होता है, चमकते आकाश के नीले मध्यान्ह तक क्षणिक दार्जिलिंग सुस्ताता है और शरीर के घावों को धूप में सुखाता है ! अपराह्न उजाले में साझा पुस्तक दूकान के आगे शंका-उप्शंकाओं का बाज़ार लगता है ! शाम को ठंढी हवा के शुरू होते ही सुबह सैर करने निकली सडकों का चौरस्ते में शाम को अम्बार लग जाता है !
चौरस्ते के एक कोने पर आग तपे , फटे ओवरकोट अतीत दोहराते हैं- 'शुरू-शुरू में बहुत किया साहित्यकार का सृजन , सुबह-सुबह घोड़े पर पेशोक-टिस्टा-कालिंपोंग पहुँचते... फिर सिक्किम...घी का व्यापार करते..... शाम को चौरस्ते से हिमालय पर पहुँचते.... पैदल चलकर तकभर , गोक, जोरथांग...माघ मेला पहुँचते सिक्किम के लिंबू-लिंबूनी साथियों के साथ धान-नाच करते लेवांगे मैदान में उत्साह के घोड़े दौडाते ... होड़ और जोर करते नृत्य और गीत फिर थियेटर ...फिर... हर दिन उमंग का और मनोरंजन का -' बातों में मग्न ओवरकोट, सारे के सारे !
'नेप्टी-चेप्टी दार्जिलिंग कस्तो छ ? दार्जिलिंग शहर बिजुली लहर बैकुंठे जस्तो छ !' रेल में बैठ ओझल हुआ बैकुंठ, जैसे बताशा , लौटकर फिर नहीं आयीं घिर्लिंग में बहती ओ खुशियाँ लौटकर फिर नहीं आयीं छोटी सी रेल में बैठकर चले गए घंवीर मुखिया, दिलू सिंह और प्रतिमान लामा .... लौटकर फिर नहीं आये गिरि और रसिक भी नहीं आये !
'रंग-भांग भन्थे छोटा शहर पंसेरे पाथी सतुवा को लुहाटा र धूलो भयो छाती ! गाते-गाते खो गए डाकमान राई, लौटकर फिर नहीं आये !
आदमियों को उकसाते क्याम्बेल, और मैकफर्लें बनों-जंगलों को गले लगाते हूकर फेरी लगाते चलते ज्ञान्दिल घर-घर ! संवेदना फैलाते रूपनारायण और सूधापा लौटकर फिर नहीं आये !
ओह! कैसी मुसलाधार वर्षा ! छतरी सब ओढ़े हैं फिर भी भीग गए ! मनुष्यों की भीड़ में अकेली गा रही पर्वत की रानी 'सिमसिम पानीमा घरैमा सोता छ मायित सानिमा अनुवाद हो रहा है मौन कर्कश बज्रान्थ-बन में घर-शहर-वातावरण !
कोयल की कुहुक सुनने में यहाँ कैसा मज़ा आता है ! लयबद्ध ताल आरंभ करने में यहाँ कैसा मज़ा आता है ! झूककर तनावग्रस्त आकाश कुछ कहता है धरती इसे सुन झुंझला उठती है दीवारों में भीग रहे हैं अनाथ पोस्टर रास्ते के उपर टाँगे फेस्टून अपहत्या कर मरते हैं !