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|रचनाकार=राजेन्द्र भंडारी
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<Poem>
रोते-रोते थक रात के तीसरे पहर
क्षण भर को सो जाती है पर्वतों की रानी!
रास्ते के उपर टाँगे फेस्टून
अपहत्या कर मरते हैं !
 
यहाँ के नर्म सूर्योदय और मखमली सूर्यास्त के साथ
टूरिस्ट के कैमरे रोज 'फर्ल्ट'करते हैं !
चाय बागान के हरित त्रासदियों से
पत्रकारों के क़लम रोज 'फर्ल्ट' करते हैं !
रोज बहती है गर्म हवा दक्षिण से
यहाँ आकाश में फिर बादलों का घर ध्वस्त हो जाता है !
 
फिर बनते हैं/ फिर ध्वस्त होते हैं
बनते हैं और ध्वस्त होते हैं / ध्वस्त होते हैं फिर बनते हैं
दार्जिलिंग स्वप्न में दिखता है आजकल दार्जिलिंग को !
सताए रहती है दार्जिलिंग की याद अक्सर दार्जिलिंग को !!
 
'''(मूल नेपाली से अनुवाद: किताब सिंह राई )'''
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