भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था / राहत इन्दौरी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहत इन्दौरी }} Category:ग़ज़ल <poem>मस्जिदों के सहन तक ...) |
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त, | अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त, | ||
− | और हर | + | और हर मासूम टहनी पर फलों का भार था| |
देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया, | देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया, | ||
− | कल यही चेहरा था जो हर आईने पे | + | कल यही चेहरा था जो हर आईने पे भार था| |
सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये, | सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये, | ||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब, | अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब, | ||
− | एक ज़माना था | + | एक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था| |
काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई, | काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई, |
10:35, 15 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था|
देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था|
अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त,
और हर मासूम टहनी पर फलों का भार था|
देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया,
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे भार था|
सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये,
आदमी क्या था हमारे शहर का अख़बार था|
अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब,
एक ज़माना था कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था|
काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई,
हम ने जो सोचा तेरे बारे में सब बेकार था|