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अगर मैं तुम्हारी बात न मानूँ | अगर मैं तुम्हारी बात न मानूँ | ||
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खुल कर विरोध करूँ | खुल कर विरोध करूँ | ||
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कहूँ यह झूठ है | कहूँ यह झूठ है | ||
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तो तुम क्या करोगे | तो तुम क्या करोगे | ||
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आज तो तुम्हारी बातें हैं बस | आज तो तुम्हारी बातें हैं बस | ||
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बातें जो पीढ़ियों की कालवधि लाँघ कर | बातें जो पीढ़ियों की कालवधि लाँघ कर | ||
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मेरे पास आई हैं | मेरे पास आई हैं | ||
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इन का पहनावा अब पुराना पड़ गया है | इन का पहनावा अब पुराना पड़ गया है | ||
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कानों को खटकती है इनकी आवाज़ | कानों को खटकती है इनकी आवाज़ | ||
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और यह आवाज़ मेरा रोक नहीं मानती | और यह आवाज़ मेरा रोक नहीं मानती | ||
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मेरे किसी प्रश्न पर रूकती नहीं | मेरे किसी प्रश्न पर रूकती नहीं | ||
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अपनी ही धुन में है | अपनी ही धुन में है | ||
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यह तुम ने कैसे कहा | यह तुम ने कैसे कहा | ||
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सत्यं ह्येकं पन्था: पुनरस्य नैक: | सत्यं ह्येकं पन्था: पुनरस्य नैक: | ||
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सत्य यदि एक है तो अनेक पथों से कैसे | सत्य यदि एक है तो अनेक पथों से कैसे | ||
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उस को प्राप्त किया जाता है | उस को प्राप्त किया जाता है | ||
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तुम्हारा एक मात्र सत्य | तुम्हारा एक मात्र सत्य | ||
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विखंडित हो चुका है | विखंडित हो चुका है | ||
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आज सत्य यात्री है | आज सत्य यात्री है | ||
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अपने क्रम में अनेक स्थानों पर ठहरता है | अपने क्रम में अनेक स्थानों पर ठहरता है | ||
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अब वह कुल-शील का विचार नहीं करता | अब वह कुल-शील का विचार नहीं करता | ||
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आज देखा है मैं ने | आज देखा है मैं ने | ||
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जहाँ कहीं जो कुछ भी रचना है कल्पना है | जहाँ कहीं जो कुछ भी रचना है कल्पना है | ||
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कल्पना का सत्य भी समीक्षक मान चुके हैं | कल्पना का सत्य भी समीक्षक मान चुके हैं | ||
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वैज्ञानिक आविष्कार को सत्य कहते हैं | वैज्ञानिक आविष्कार को सत्य कहते हैं | ||
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इतिहास ऎसा ही था | इतिहास ऎसा ही था | ||
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कैसा | कैसा | ||
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नए नए इतिहास रचे जाया करते हैं | नए नए इतिहास रचे जाया करते हैं | ||
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बल दे कर कहते हैं भाषा में अपनी अपनी सभी लोग | बल दे कर कहते हैं भाषा में अपनी अपनी सभी लोग | ||
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इतिहास ऎसा ही था | इतिहास ऎसा ही था | ||
− | + | '''रचनाकाल''' : 7.11.1963 | |
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05:30, 22 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
अगर मैं तुम्हारी बात न मानूँ
खुल कर विरोध करूँ
कहूँ यह झूठ है
तो तुम क्या करोगे
आज तो तुम्हारी बातें हैं बस
बातें जो पीढ़ियों की कालवधि लाँघ कर
मेरे पास आई हैं
इन का पहनावा अब पुराना पड़ गया है
कानों को खटकती है इनकी आवाज़
और यह आवाज़ मेरा रोक नहीं मानती
मेरे किसी प्रश्न पर रूकती नहीं
अपनी ही धुन में है
यह तुम ने कैसे कहा
सत्यं ह्येकं पन्था: पुनरस्य नैक:
सत्य यदि एक है तो अनेक पथों से कैसे
उस को प्राप्त किया जाता है
तुम्हारा एक मात्र सत्य
विखंडित हो चुका है
आज सत्य यात्री है
अपने क्रम में अनेक स्थानों पर ठहरता है
अब वह कुल-शील का विचार नहीं करता
आज देखा है मैं ने
जहाँ कहीं जो कुछ भी रचना है कल्पना है
कल्पना का सत्य भी समीक्षक मान चुके हैं
वैज्ञानिक आविष्कार को सत्य कहते हैं
इतिहास ऎसा ही था
कैसा
नए नए इतिहास रचे जाया करते हैं
बल दे कर कहते हैं भाषा में अपनी अपनी सभी लोग
इतिहास ऎसा ही था
रचनाकाल : 7.11.1963