भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"इक जरा छींक ही दो तुम / गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
[[चित्र:Shivling.jpg]] | [[चित्र:Shivling.jpg]] | ||
− | + | <poem> | |
− | चिपचिपे दूध से नहलाते हैं | + | चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें |
− | + | ||
− | आंगन में खड़ा कर के तुम्हें | + | |
− | + | ||
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या | शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या | ||
− | + | घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के | |
− | घोल के सर पे लुढ़काते हैं | + | |
− | + | ||
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर | औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर | ||
− | |||
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो | पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो | ||
− | |||
इक पथराई सी मुस्कान लिए | इक पथराई सी मुस्कान लिए | ||
− | + | बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी | |
− | बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी | + | |
− | + | ||
जब धुआँ देता, लगातार पुजारी | जब धुआँ देता, लगातार पुजारी | ||
− | |||
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर | घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर | ||
− | + | इक जरा छींक ही दो तुम | |
− | इक जरा छींक ही दो तुम | + | तो यकीं आए कि सब देख रहे हो |
− | + | </poem> | |
− | तो यकीं आए कि सब देख रहे हो | + |
09:16, 24 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं, आंगन में खड़ा कर के तुम्हें
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलासियाँ भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी
जब धुआँ देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो