भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=अकबर इलाहाबादी | |रचनाकार=अकबर इलाहाबादी | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
− | उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी | + | <poem> |
− | निकलती हैं | + | उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी |
+ | निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर | ||
− | तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था | + | तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था |
− | मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर | + | मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर |
− | न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे | + | न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे |
− | मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर | + | मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर |
− | हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की | + | हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में |
− | बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर | + | बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर |
− | निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो | + | निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है |
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर | सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर | ||
+ | </poem> |
10:12, 26 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर
तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर
न थी मुतलक़ तव्क़्क़ो बिल बनाकर पेश कर दोगे
मेरी जाँ लुट गया मैं तो तुम्हारा मेहमाँ होकर
हक़ीक़त में मैं एक बुलबुल हूँ मगर चारे की ख़्वाहिश में
बना हूँ मिमबर-ए-कोंसिल यहाँ मिट्ठू मियाँ होकर
निकाला करती है घर से ये कहकर तू तो मजनूं है
सता रक्खा है मुझको सास ने लैला की माँ होकर