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"कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की / अकबर इलाहाबादी" के अवतरणों में अंतर

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छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की  
 
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हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार की  
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देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की
 
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ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन को  
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ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन<ref>तसल्ली</ref> को  
 
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की  
 
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बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है  
 
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मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों ने गली में यार की  
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लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े  
 
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ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की
 
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10:19, 26 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

कट गई झगड़े में सारी रात वस्ल-ए-यार की
शाम को बोसा लिया था, सुबह तक तक़रार की

ज़िन्दगी मुमकिन नहीं अब आशिक़-ए-बीमार की
छिद गई हैं बरछियाँ दिल में निगाह-ए-यार की

हम जो कहते थे न जाना बज़्म में अग़यार<ref>ग़ैर</ref> की
देख लो नीची निगाहें हो गईं सरकार की

ज़हर देता है तो दे, ज़ालिम मगर तसकीन<ref>तसल्ली</ref> को
इसमें कुछ तो चाशनी हो शरब-ए-दीदार की

बाद मरने के मिली जन्नत ख़ुदा का शुक्र है
मुझको दफ़नाया रफ़ीक़ों<ref>दोस्तों</ref> ने गली में यार की

लूटते हैं देखने वाले निगाहों से मज़े
आपका जोबन मिठाई बन गया बाज़ार की

थूक दो ग़ुस्सा, फिर ऐसा वक़्त आए या न आए
आओ मिल बैठो के दो-दो बात कर लें प्यार की

हाल-ए-'अकबर' देख कर बोले बुरी है दोस्ती
ऐसे रुसवाई, ऐसे रिन्द, ऐसे ख़ुदाई ख़्वार की

शब्दार्थ
<references/>