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"ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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− | आज ही हुआ मंज़ूर | + | आज ही हुआ मंज़ूर उनको इम्तहां अपना <br><br> |
मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते <br> | मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते <br> | ||
− | अर्श से | + | अर्श से उधर होता काश के मकां अपना <br><br> |
दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे <br> | दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे <br> | ||
− | बारे | + | बारे आशना निकला उनका पासबां अपना <br><br> |
− | दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक | + | दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ <br> |
− | उँगलियाँ फ़िगार अपनी | + | उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना <br><br> |
− | घिसते-घिसते मिट जाता आप ने | + | घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अ़बस बदला <br> |
− | नंग-ए- | + | नंग-ए-सिजदा से मेरे संग-ए-आस्तां अपना <br><br> |
− | ता करे न | + | ता करे न ग़म्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को <br> |
− | दोस्त की शिकायत में हम ने | + | दोस्त की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना <br><br> |
− | हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में | + | हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे <br> |
− | बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन | + | बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन अस्मां अपना<br><br> |
07:15, 2 मार्च 2010 का अवतरण
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दां अपना
मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में, यारब
आज ही हुआ मंज़ूर उनको इम्तहां अपना
मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से उधर होता काश के मकां अपना
दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे आशना निकला उनका पासबां अपना
दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक, ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामा ख़ूंचकां अपना
घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अ़बस बदला
नंग-ए-सिजदा से मेरे संग-ए-आस्तां अपना
ता करे न ग़म्माज़ी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हमज़बां अपना
हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन अस्मां अपना