"शिकवे के नाम से बेमेहर ख़फ़ा होता है / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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07:59, 3 मार्च 2010 का अवतरण
शिकवे के नाम से बेमेहर ख़फ़ा होता है
ये भी मत कह, कि जो कहिये तो गिला होता है
पुर हूँ मैं शिकवा से यूँ, राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िये फिर देखिये क्या होता है
गो समझता नहीं पर हुस्ने-तलाफ़ी<ref>क्षति-पू्र्ति का सुँदर ढंग</ref> देखो
शिकवा-ए-ज़ौर<ref>अत्याचार की शिकायत</ref> से सरगर्म-ए-जफ़ा होता है
इश्क़ की राह में है, चर्ख़-ए-मकौकब<ref>तारों भरा आसमान</ref> की वो चाल
सुस्त-रौ जैसे कोई आबला-पा होता है
क्यूँ न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद<ref>ज़िल्म के तीर के निशाने के लिए अर्पित</ref> कि हम
आप उठा लाते हैं गर तीर ख़ता होता है
ख़ूद था, पहले से होते जो हम अपने बदख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है
नाला जाता था, परे अ़र्श से मेरा, और अब
लब तक आता है जो ऐसा ही रसा होता है