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"ढाबा : आठ कविताएँ-2 / नीलेश रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर
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स्कूल के दिन होंगे औरों के | स्कूल के दिन होंगे औरों के | ||
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यहाँ तो | यहाँ तो | ||
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ढाबे और स्कूल के बीच गुज़र गए दिन। | ढाबे और स्कूल के बीच गुज़र गए दिन। | ||
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लौटते ही स्कूल से बस्ता पटककर | लौटते ही स्कूल से बस्ता पटककर | ||
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दौड़ जाते थे हम ढाबे की ओर | दौड़ जाते थे हम ढाबे की ओर | ||
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हाथों में होमवर्क की कापियाँ और क़िताब लिए। | हाथों में होमवर्क की कापियाँ और क़िताब लिए। | ||
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भरा होता जिस दिन ढाबा | भरा होता जिस दिन ढाबा | ||
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साँस रह जाती ऊपर की ऊपर | साँस रह जाती ऊपर की ऊपर | ||
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छूट जाता हाथों से पैन | छूट जाता हाथों से पैन | ||
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ले लेता उसकी जगह चिमटा। | ले लेता उसकी जगह चिमटा। | ||
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तपती भट्टी पर रोटियाँ सेंक-सेंक कर बुझाई हमने | तपती भट्टी पर रोटियाँ सेंक-सेंक कर बुझाई हमने | ||
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कितने ही पेटों कि आग | कितने ही पेटों कि आग | ||
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फिर भी | फिर भी | ||
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गिनकर खाते हैं लोग रोटियाँ | गिनकर खाते हैं लोग रोटियाँ | ||
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करते हैं कैसी झिक-झिक देने में पैसे। | करते हैं कैसी झिक-झिक देने में पैसे। | ||
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क़िताब और कापी के बीच मौज़ूद रही हमेशा | क़िताब और कापी के बीच मौज़ूद रही हमेशा | ||
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उनकी झिक-झिक से भरी मुस्कान। | उनकी झिक-झिक से भरी मुस्कान। | ||
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13:10, 3 मार्च 2010 के समय का अवतरण
स्कूल के दिन होंगे औरों के
यहाँ तो
ढाबे और स्कूल के बीच गुज़र गए दिन।
लौटते ही स्कूल से बस्ता पटककर
दौड़ जाते थे हम ढाबे की ओर
हाथों में होमवर्क की कापियाँ और क़िताब लिए।
भरा होता जिस दिन ढाबा
साँस रह जाती ऊपर की ऊपर
छूट जाता हाथों से पैन
ले लेता उसकी जगह चिमटा।
तपती भट्टी पर रोटियाँ सेंक-सेंक कर बुझाई हमने
कितने ही पेटों कि आग
फिर भी
गिनकर खाते हैं लोग रोटियाँ
करते हैं कैसी झिक-झिक देने में पैसे।
क़िताब और कापी के बीच मौज़ूद रही हमेशा
उनकी झिक-झिक से भरी मुस्कान।