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"ढाबा : आठ कविताएँ-4 / नीलेश रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर

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आठ बहनों का इकलौता भाई
 
आठ बहनों का इकलौता भाई
 
 
कलाई पर जिसके बंधती पूरी आठ राखियाँ
 
कलाई पर जिसके बंधती पूरी आठ राखियाँ
 
 
आठों के आठ डोरे झुलसे हर बार भट्ठी में।
 
आठों के आठ डोरे झुलसे हर बार भट्ठी में।
 
  
 
भाई के माथे पर लगा टीका
 
भाई के माथे पर लगा टीका
 
 
लगाया जो हमने हाथों में चूड़ियाँ पहनकर
 
लगाया जो हमने हाथों में चूड़ियाँ पहनकर
 
 
पसीने से छूटा हर बार।
 
पसीने से छूटा हर बार।
 
  
 
त्यौहार के नए कपड़े पहन
 
त्यौहार के नए कपड़े पहन
 
 
खड़ा होता है जब भाई तन्दूर के सामने
 
खड़ा होता है जब भाई तन्दूर के सामने
 
 
रोटी की महक और उसके नए कपड़ों की गंध
 
रोटी की महक और उसके नए कपड़ों की गंध
 
 
जाने कितनी बार गई मेरे अंदर।
 
जाने कितनी बार गई मेरे अंदर।
 
  
 
भाई के माथे से टपकता पसीना हर बार चाहा पोंछ देना
 
भाई के माथे से टपकता पसीना हर बार चाहा पोंछ देना
 
 
बनियान और पैंट पहने भाई लगता है कितना सुंदर
 
बनियान और पैंट पहने भाई लगता है कितना सुंदर
 
 
उन लड़कियों के भाई बैठे होंगे जो घरों में
 
उन लड़कियों के भाई बैठे होंगे जो घरों में
 
 
उनसे कई-कई गुना सुंदर हमारा भाई।
 
उनसे कई-कई गुना सुंदर हमारा भाई।
 
  
 
सोचती रही हमेशा
 
सोचती रही हमेशा
 
 
हमेशा चाहा पिता ने
 
हमेशा चाहा पिता ने
 
 
त्यौहार पर भाई-बहन गुज़ारें कुछ समय हँसी-ठिठोली में
 
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पिता की इस इच्छा को मिल नहीं पाए कभी पंख।
 
पिता की इस इच्छा को मिल नहीं पाए कभी पंख।
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13:11, 3 मार्च 2010 के समय का अवतरण

आठ बहनों का इकलौता भाई
कलाई पर जिसके बंधती पूरी आठ राखियाँ
आठों के आठ डोरे झुलसे हर बार भट्ठी में।

भाई के माथे पर लगा टीका
लगाया जो हमने हाथों में चूड़ियाँ पहनकर
पसीने से छूटा हर बार।

त्यौहार के नए कपड़े पहन
खड़ा होता है जब भाई तन्दूर के सामने
रोटी की महक और उसके नए कपड़ों की गंध
जाने कितनी बार गई मेरे अंदर।

भाई के माथे से टपकता पसीना हर बार चाहा पोंछ देना
बनियान और पैंट पहने भाई लगता है कितना सुंदर
उन लड़कियों के भाई बैठे होंगे जो घरों में
उनसे कई-कई गुना सुंदर हमारा भाई।

सोचती रही हमेशा
हमेशा चाहा पिता ने
त्यौहार पर भाई-बहन गुज़ारें कुछ समय हँसी-ठिठोली में

पिता की इस इच्छा को मिल नहीं पाए कभी पंख।