"सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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21:08, 3 मार्च 2010 का अवतरण
सताइश<ref>प्रशंसक</ref>-गर है ज़ाहिद<ref>तपस्वी</ref> इस क़दर जिस बाग़े-रिज़वां<ref>स्वर्ग का बाग</ref> का
वह इक गुलदस्ता है हम बेख़ुदों के ताक़े-निसियां<ref>विस्मृति को ताक़</ref> का
बयां कया कीजिये बेदादे-काविश-हाए-मिज़गां<ref>पलकों के चुभने की पीड़ा</ref> का
कि हर इक क़तरा-ए-ख़ूं दाना है तस्बीहे-मरजां<ref>मूंगे की माला</ref> का
न आई सतवते-क़ातिल<ref>हत्यारे का आंतक</ref> भी मानअ़ मेरे नालों को
लिया दांतों में जो तिनका हुआ रेशा नैस्तां<ref>बांस का जंगल</ref> का
दिखाऊंगा तमाशा, दी अगर फ़ुरसत ज़माने ने
मेरा हर दाग़-ए-दिल इक तुख्म<ref>बीज</ref> है सर्व<ref>पेड़</ref>-ए-चिराग़ां का
किया आईनाख़ाने का वो नक़्शा तेरे जल्वे ने
करे जो परतव-ए-ख़ुरशीद-आलम<ref>दुनिया के सूरज का प्रतिबिम्ब</ref> शबनमिस्तां<ref>जहाँ ओस पड़ती हो</ref> का
मेरी तामीर में मुज़्मिर है इक सूरत ख़राबी की
हयूला बरक़-ए-ख़िरमन का है ख़ून-ए-गरम दहक़ां का
उगा है घर में हर-सू सब्ज़ा, वीरानी, तमाशा कर
मदार अब खोदने पर घास के है मेरे दरबां का
ख़मोशी में निहां ख़ूं-गश्ता लाखों आरज़ूएं हैं
चिराग़-ए-मुरदा हूं मैं बेज़ुबां गोर-ए-ग़रीबां का
हनोज़ इक परतव-ए-नक़्श-ए-ख़याल-ए-यार बाक़ी है
दिल-ए-अफ़सुर्दा गोया हुजरा है यूसुफ़ के ज़िन्दां का
बग़ल में ग़ैर की आप आज सोए हैं कहीं, वरना
सबब क्या? ख़्वाब में आ कर तबस्सुम-हाए-पिनहां का
नहीं मालूम किस-किसका लहू पानी हुआ होगा!
क़यामत है सरश्क-आलूदा होना तेरी मिज़गां का
नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना ग़ालिब
कि यह शीराज़ा<ref></ref> है आ़लम के अज्जाए-परीशां<ref></ref> का