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"दीवानगी से दोश पे जुन्नार भी नहीं / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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08:20, 5 मार्च 2010 के समय का अवतरण

दीवानगी से दोश<ref>कंधा</ref> पे ज़ुन्नार<ref>जनेऊ</ref> भी नहीं
यानी हमारे जैब<ref>गिरेबान</ref> में इक तार भी नहीं

दिल को नियाज़े<ref>आकांक्षा</ref>-हसरते-दीदार<ref>दर्शनों की इच्छा</ref> कर चुके
देखा तो हममें ताक़ते-दीदार<ref>देखने की शक्ति</ref> भी नही

मिलना तेरा अगर नहीं आसां तो सह्ल<ref>आसान</ref>है
दुश्वार<ref>कठिनाई</ref> तो यही है कि दुश्वार भी नहीं

बे-इश्क़<ref>बिना प्रेम के</ref> उम्र कट नहीं सकती है और यां<ref>यहाँ</ref>
ताक़त बक़द्रे<ref>अत्याधिक</ref>-लज़्ज़ते-आज़ार<ref>दुखों का स्वाद</ref> भी नहीं

शोरीदगी<ref>जुनून</ref> के हाथ से है सर वबाले-दोश<ref>कंधे की मुसीबत</ref>
सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं

गुंजाइशे-अ़दावते-अग़यार<ref>ग़ैरों की दुशमनी</ref>इक तरफ़
यां दिल में ज़ोफ़<ref>कमज़ोरी</ref>से हवसे-यार भी नहीं

डर नाला-हाए-ज़ार<ref>आर्तनाद</ref>से मेरे ख़ुदा को मान
आख़िर नवाए-मुर्ग़े-गिरफ़तार<ref>क़ैद पक्षी का रुदन</ref>भी नहीं

दिल में है यार की सफ़े-मिज़गां<ref>पलकों की पंक्ति</ref>से रूकशी<ref>सम्मुख</ref>
हालाँकि ताक़ते-ख़लिशे-ख़ार<ref>काँटे की चुभन</ref>भी नहीं

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

देखा ‘असद’ को ख़ल्वत<ref>एकान्त</ref>-ओ-जल्वत<ref>सभा</ref>में बारहा
दीवाना गर नहीं है तो हुशियार भी नहीं

शब्दार्थ
<references/>