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"रुबाइयां / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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20:54, 6 मार्च 2010 का अवतरण

आतिशबाज़ी है जैसे शग़्ले-अतफ़ाल<ref>बच्चों का खेल</ref>
है सोज़े-ज़िगर का भी इसी तौर का हाल
था मूजीदे-इश्क़ भी क़यामत कोई
लड़कों के लिए गया है क्या खेल निकाल

दिल था की जो जाने दर्द तम्हीद<ref>प्रारम्भ</ref> सही
बेताबी-रश्क व हसरते-दीद सही
हम और फ़सुर्दन<ref>आकुलता</ref>, ऐ तज़ल्ली! अफ़सोस
तकरार रवा<ref>उचित</ref> नहीं तो तजदीद<ref>फिर शुरु करना</ref> सही

है ख़ल्क़ हसद<ref>ईर्ष्या</ref> क़माश<ref>कमीज़ें</ref> लड़ने के लिए
वहशत-कदा-ए-तलाश लड़ने के लिए
यानी हर बार सूरते-क़ागज़े-बाद<ref>पतंग</ref>
मिलते हैं ये बदमाश लड़ने के लिए

दिल सख़्त निज़न्द<ref>दुःखी</ref> हो गया है गोया
उससे गिलामन्द हो गया है गोया
पर यार के आगे बोल सकते ही नहीं
'ग़ालिब' मुंह बंद हो गया है गोया

दुःख जी के पसंद हो गया है 'ग़ालिब'
दिल रुककर बंद हो गया है 'ग़ालिब'
वल्लाह कि शब को नींद आती ही नहीं
सोना सौगन्द<ref>मुश्किल</ref> हो गया है 'ग़ालिब'

मुश्किल है ज़बस<ref>बे-शक</ref> कलाम मेरा ऐ दिल!
सुन-सुन के उसे सुख़नवराने-कामिल<ref>सफल कवि</ref>
आसान कहने की करते हैं फ़रमाइश
गोयम मुश्किल वगरना गोयम मुश्किल<ref>मैं मुश्किल ही कह सकता हूँ वर्ना मेरे लिए शेर कहना मुश्किल है</ref>

कहते हैं कि अब वो मर्दम-आज़ार<ref>मनुष्यों को सताने वाला</ref> नहीं
उश्शाक़<ref>प्रेमीयों</ref> की पुरसिश<ref>हाल-चाल पूछना</ref> से उसे आ़र<ref>लज्जा</ref> नहीं
जो हाथ कि ज़ुल्म से उठाया होगा
क्योंकर मानूं कि उसमें तलवार नहीं

हम गरचे बने सलाम करने वाले
कहते हैं दिरंग<ref>संकोच, देर से</ref> काम करने वाले
कहते हैं कहें खुदा से, अल्लाह अल्लाह
वो आप हैं सुबह शाम करने वाले

समाने-ख़ुरो-ख़्वाब<ref>खाना ओर सोना</ref> कहाँ से लाऊं?
आराम के असबाब<ref>सोमान</ref> कहाँ से लाऊं?
रोज़ा मेरा ईमान है 'ग़ालिब' लेकिन
ख़स-ख़ाना-ओ-बर्फ़ाब<ref>बर्फ़ का पानी</ref> कहाँ से लाऊं?

शब्दार्थ
<references/>