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"हादसा /अमृता प्रीतम" के अवतरणों में अंतर

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बरसों की आरी हंस रही थी
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दुनिया शायद अब भी बसती है
 
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03:06, 8 मार्च 2010 के समय का अवतरण

बरसों की आरी हँस रही थी
घटनाओं के दाँत नुकीले थे
अकस्मात एक पाया टूट गया
आसमान की चौकी पर से
शीशे का सूरज फिसल गया

आँखों में कंकड़ छितरा गए
और नज़र जख़्मी हो गई
कुछ दिखाई नहीं देता
दुनिया शायद अब भी बसती है