"हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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23:30, 9 मार्च 2010 का अवतरण
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूँ, जो चश्मे-तर से उम्र यूँ दम-ब-दम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत<ref>क़द</ref> की दराज़ी<ref>ऊँचाई</ref>का
अगर उस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म<ref>बल खाए हुए तुर्रे का बल</ref> का पेच-ओ-ख़म निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझ से बादा-आशामी<ref>शराबनोशी</ref>
फिर आया वह ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम<ref>जमदेश बादशाह का प्याला</ref> निकले
हुई जिनसे तवक़्क़ो<ref>चाहत</ref> ख़स्तगी<ref>घायलावस्था</ref> की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम<ref>अत्याचार की तलवार के घायल</ref> निकले
अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
ज़रा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम<ref>अत्याचारपूर्ण तीर</ref> निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
मुहब्बत में नही है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले
ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़<ref>उपदेशक</ref>
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले