"कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाये है मुझ से / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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09:06, 10 मार्च 2010 का अवतरण
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझ से
जफ़ायें<ref>अत्याचार</ref> करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझ से
ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर<ref>प्रभाव</ref> उलटी है
कि जितना खैंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझ से
वो बद-ख़ू<ref>बदमिजाज़</ref>, और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी<ref>लंबी</ref>
इबारत<ref>वर्णन</ref> मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref>, क़ासिद<ref>संदेशवाहक</ref> भी घबरा जाये है मुझ से
उधर वो बदगुमानी<ref>संदेह</ref> है, इधर ये नातवानी<ref>कमज़ोरी</ref> है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझ से
सँभलने दे मुझे ऐ नाउम्मीदी, क्या क़यामत है
कि दामन-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाये है मुझ से
तकल्लुफ़ बर-तरफ़<ref>साफ, सीधी बात,औपचारकिता को एक तरफ रख कर</ref>, नज़्ज़ारगी<ref>दर्शन</ref> में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझ से
हुए हैं पाँव ही पहले नवर्द-ए-इश्क़<ref>प्यार की लड़ाई</ref> में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझ से
क़यामत है कि होवे मुद्दई<ref>दावा करने वाला</ref> का हमसफ़र "ग़ालिब"
वो काफ़िर<ref>यहाँ इस का मतलब - प्रिय</ref>, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझ से