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"ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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− | इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया | + | इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया |
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09:26, 12 मार्च 2010 का अवतरण
ग़ैर ले महफ़िल में, बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब<ref>सूखे होंठ</ref> पैग़ाम के
ख़स्तगी<ref>ज़ख़्मों</ref> का तुम से क्या शिकवा, कि ये
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फाम<ref>नीला आसमान</ref> के
ख़त लिखेंगे, गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
रात पी ज़मज़म<ref>एक दरिया</ref> पे मय और सुबह दम
धोए धब्बे जाम-ए-अहराम<ref>तीर्थ-यात्रा पर पहने जाने वाले वस्त्र</ref> के
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े<ref>छल्ले</ref> हैं तुम्हारे दाम<ref>ज़ाल</ref> के
शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेहत को ख़बर
देखिये, कब दिन फिरें हम्माम<ref>नहाने की जगह</ref> के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
शब्दार्थ
<references/>