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02:19, 14 मार्च 2010 के समय का अवतरण
रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार<ref>बादशाह का नौकर</ref> की
इतराए क्यों न ख़ाक, सर-ए-रहगुज़ार<ref>सड़क का किनारा</ref> की
जब, उस के देखने के लिये, आएं बादशाह
लोगों में क्यों नुमूद<ref>धूमधाम</ref> न हो, लालाज़ार<ref>टयूलिप का बाग</ref> की
भूखे नहीं हैं सैर-ए-गुलिस्तां के हम, वले<ref>लेकिन</ref>
क्योंकर न खाइये, कि हवा है बहार की
शब्दार्थ
<references/>